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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चाहिए।' अर्थात् योगी को इंद्रियों एवं मनोनिग्रह करनेवाली यथावस्थित वस्तु का आलम्बन लेते हुए एकाग्रचित होकर ध्यान करना चाहिए । निर्विघ्न ध्यान देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार सम्पादित होता है और इसके लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और वैराग्य अपेक्षित है, जिनसे सहजतया मन को स्थिर किया जाता है, कर्मों को रोका जाता है तथा वीतरागता आदि गणों को प्राप्त किया जाता है। आचार्य शभचंद्र ने धर्म-ध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं के चिन्तन पर जोर दिया है।
ध्यान के विविध परिकर्मो के वर्णन में कहा गया है कि ध्याता ऐसी जगह कभी ध्यान न करे जहाँ स्त्री, पश, शूद्र, प्राणी आदि हों। वह ऐसे निर्जन वन में चला जाय, जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा को संभावना न हो और वह किसी भी जगह दिन अथवा रात्रि के समय ध्यान के लिए बैठ जाय । यह भी निर्देशित है कि ध्यान का आसन सुखदायक हो, जिससे कि ध्यान की मर्यादा टिक सके। उस आसन से बैठकर, खड़े रहकर अथवा लेटकर भी ध्यान किया जा सकता है। वैसी स्थिति में दृष्टि स्थिर होनी चाहिए, श्वास-प्रश्वास की गति मंद हो, इंद्रियविषयक बाह्य पदार्थो से अलगाव हो और साधक निद्रा, भय एवं आलस से रहित होकर आत्मा का ध्यान करे । साधक सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाय। यह वहीं संभव है जहाँ शोर,
१. ध्याता ध्यानं फलं ध्येयं यस्य यत्र यदा यथा।
इत्येतदत्र बोद्धव्यं ध्यातुकामेन योगिना ॥ -वही ३७ २. वही, ३८-३९ ३. ध्यानशतक, ३०-३४ ४. चतस्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः ।
मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ॥ -ज्ञानार्णव, २५।४ ५. तत्त्वानुशासन, ९०-९५ ६. कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ ।
नउ दिवस निसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥ -ध्यानशतक, ३८ ७. जच्चिय देहावत्था जियाण झाणोपरोहिणी होइ ।
झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो च ॥ -वही, ३९
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