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योग के साधन : ध्यान
दूसरों के दुःख से पीड़ित होता है, ऐहिक-पारलौकिक भय से आतंकित होता है, अनुकम्पा से रहित, नीच कर्मों में निर्लज्ज एवं पाप में आनन्द मनानेवाला होता है।' इस ध्यान को लेश्याएँ कृष्ण, नील एवं कापोत होती हैं और यह पंचम गुणस्थान पर्यन्त होता है।' (इ) धर्मध्यान
यह ध्यान सद्ध्यान माना गया है, क्योंकि इस ध्यान से जीव का रागभाव मंद होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। इस दृष्टि से यह ध्यान आत्मविकास का प्रथम चरण है। स्थानांग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है। धर्मध्यान उसके होता है, जो दस धर्मों का पालन करता है, इंद्रिय-विषयों से निवृत्त होता है तथा प्राणियों की दया में रत होता है। ज्ञानसार में कहा गया है कि शास्त्र-वाक्यों के अर्थों, धर्ममार्गणाओं, व्रतों, गुप्तियों, समितियों, भावनाओं आदि का चिन्तन करना धर्मध्यान है। इस प्रकार इसे मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निज परिणामी' माना गया है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप धर्म-चिन्तन का पर्याय कहा गया है।
धर्मध्यान के स्वरूप को जानने के लिए योगी को ध्याता, ध्येय, ध्यान, फल, ध्यान का स्वामी, जहाँ (ध्यान योग्य क्षेत्र) जब (ध्यान योग्य काल) तथा जैसे (ध्यान योग्य अवस्था) मुद्राओं को ठीक तरह से समझना
१. आवश्यक अध्ययन, ४ २. ध्यानशतक, २५; ज्ञानार्णव, २४॥३४ ३. स्थानांग, ४।२४७ * तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, स्वोपज्ञभाष्य, ९।२९ ५. सुतत्थ धम्म मग्गणवय गुत्ती समिदि भावणाईणं ।
जं कीरइ चितवणं धम्मज्झाणं च इह भणियं ॥ -ज्ञानसार, १६ चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सौ समो त्ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
-प्रवचनसार, १७; तथा तत्त्वानुशासन, ५२ ७. सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
तस्माद्यदनपेतं हि धम्यं तद्ध्यानमभ्यधुः ॥ -तत्त्वानुशासन, ५१
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