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________________ १६८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाता है, वह इस ध्यान का विषय है। ऐसा ध्यान करनेवाला निपुण, निर्दय, कृतघ्न और नरक का भागी होता है । वह सदा कुटिलता, मायाचारिता, वैर, बदला लेने, ईर्ष्या करने आदि दुष्प्रवृत्तियों में फंसा रहता है तथा इन्हीं प्रवृत्तियों का चिन्तन करता रहता है । (२) मृषानन्द-असत्य, झूठी कल्पनाओं से ग्रस्त होकर दूसरों को धोखा देने अथवा ठगने का चिन्तन करना मृषानन्द रौद्रध्यान है। मृषानन्दी व्यक्ति सत्य वचनों से रहित मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए सत्य को झूठ अथवा झूठ को सत्य बनाकर लोगों को ठगता है और अपने को चतुर सिद्ध करता है ।। , (३) चौर्यानन्द-चोरी संबंधी कार्यो', उपदेशों अथवा चौर-प्रवृत्तियों में कुशलता दिखाना चौर्यानन्द रौद्रध्यान है। इस ध्यान के अन्तर्गत चौर्य कर्म के लिए निरन्तर व्याकुल रहना, चिन्तित होना अथवा दूसरों की सम्पत्ति के हरण से हर्षित होना अथवा दूसरों की सम्पत्ति को हरण करने का उपाय बताना आदि दुष्प्रवृत्तियां आती हैं । यह अतिशय निन्दा का कारण है। (४) संरक्षणानन्द-क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को नष्ट करके उनके ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति को भोगने की इच्छा रखना अथवा शत्रु से भयभीत होकर अपने धन, स्त्री, पुत्र राज्यादि के संरक्षणार्थ तरह-तरह की चिन्ता करना संरक्षणानन्द रौद्रध्यान है।" इस प्रकार रोद्रध्यानी सर्वदा अपध्यान में लीन रहता है और दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने के उपाय सोचता रहता है। फलतः वह भी १. सत्तवह-वेह-बंधण-डहणकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गवत्थं निग्धिणमणसोऽहम विवागं । -ध्यानशतक, १९ २. असत्यकल्पनाजालकश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ।। - ज्ञानार्णव, २४।१४ तथा आगे ३. चौर्योपदेशबाहुल्यं चातुर्य चौर्यकर्मणि । यच्चौर्येकरतं चेतस्तच्चौर्यानन्दमिष्यते ।। -ज्ञानार्णव, २४॥२२ ४. ज्ञानार्णव, २४।२३-२६ ५. वही, २४।२८-२९ तथा आगे; ध्यानशतक, २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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