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योग के साधन : ध्यान झगड़ा, दूषित वातावरण न हो और ऐसा स्थान निर्जन, पहाड़, गुफा आदि ही हो सकता है।
इस ध्यान के संदर्भ में आज्ञारुचि, निसर्ग-रुचि, सूत्ररुचि एवं अवगाढ़रुचि इन चार लिंगों के साथ ही साथ वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, सामायिक, सद्धर्म-विषयक आलम्बनों का भी विधान है। इस ध्यान के अधिकारी वे ही हैं, जो सम्यक्दृष्टि, अविरति, प्रमत्त और अप्रमत्त गुण-स्थानवर्ती हैं। इस ध्यान की लेश्याएँ५ पीत, पद्म और शुक्ल कही गयी हैं। क्योंकि पहले दो ध्यानों की अपेक्षा इस ध्यान में जीव का स्वभाव सरल और उसके परिणाम मन्दकषायी और मन्दतरकषायी होते हैं । धर्मध्यान में लीन जीव आत्मविकास में द्रुतगति से अग्रसर होते हैं।
मानसिक चंचलता के कारण साधक का मन एकाएक स्थिर नहीं हो पाता, अतः साधक को चाहिए कि वह स्थूल वस्तु का आलम्बन लेकर ही सूक्ष्म वस्तु की ओर बढ़े। ध्यान में आसक्तिवश बार-बार उन्हीं बातों की याद आती रहती है जो जीवन में घटित हुई हों।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान चार प्रकार का है-(१) आज्ञाविचय, (३) अपायविचय, (३) विपाकविचय तथा (४) संस्थानविचय। 'विचय' शब्द का अर्थ चिन्तन करना है। १. रागादिवागुराजालं निकृत्याचिन्त्यविक्रमः ।
स्थानमाश्रयते धन्यो विविक्त ध्यानसिद्धये ॥ -ज्ञानार्णव, २५२० २. स्थानांग, ४।२४७; अभिधानराजेन्द्रकोश, भा० ४, पृ० १६६३ ३. स्थानांग, ४॥२४७; ध्यानशतक, ४२ ४. अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिर्देशसंयतः । धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः ।।
-तत्त्वानुशासन, ४६; ज्ञानार्णव, २६।२८ होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय-पम्ह-सुक्काओ।
धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदाइभेयाओ ।। - ध्यानशतक, ६६ ६. आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् । इत्थं वा ध्येय-भेदेन धर्म-ध्यानं चतुर्विधम् ॥-योगशास्त्र, १०1७
-ज्ञानार्णव, ३०१५; तत्त्वानुशासन, ९८.
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