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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (१) आज्ञाविचय - इस ध्यान में तीर्थंकरकथित उपदेशों का चिंतन किया जाता है, अतः सर्वज्ञ होने के कारण तीर्थंकर के तत्त्वोपदेश में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं होती, तर्क से बाधित नहीं होता, असत्य नहीं होता ।" इस प्रकार इस ध्यान में मुख्यतः आप्त-वचनों का आलम्बन लिया जाता है और मन को क्रमशः सूक्ष्म की ओर ले जाया जाता है । १७२ (२) अपायविचय — इस ध्यान में कर्म - नाश का तथा आत्मसिद्धि की "प्राप्ति के उपाय का चिन्तन किया जाता है । दूसरे शब्दों में रागद्वेषदि कषाय तथा प्रमाद द्वारा उत्पन्न होनेवाले कष्टों, दुर्गतियों आदि का मनन करना अपायविचय धर्म-ध्यान है । * (३) विपाक विषय - 'विपाक' शब्द कर्मों के शुभ-अशुभ फल के उदय - का द्योतक है । अतः कर्मों की विचित्रता का चिन्तन करना अथवा कर्म- फल के क्षण-क्षण में उदित होने की प्रक्रियाओं के बारे में विचार करना विपाक - वित्रय धर्मध्यान है । इस ध्यान में द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की • दृष्टि से चिन्तन किया जाता है कि उदय, उदीरणा कैसे और किस कारण - से होती है तथा उनको कैसे नष्ट किया जा सकता है । (४) संस्थान - विचय – अनादि अनंत काल से, अव्याहत रूप से जो १. (क) आज्ञायत्रपुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधितम् । तत्त्वतश्चिन्तयर्दथस्तदाज्ञा-ध्यानमुच्यते ॥ सर्वज्ञवचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारूपमादेयं न मृषाभाषिणो जिनाः ॥ - योगशास्त्र, १०।८-९ (ख) देखें ज्ञानार्णव, अध्याय ३० । १. इत्युपायैर्विनिश्चयो मार्गाच्च्यवनलक्षणः । कर्मणां च तथापाय उपायः स्वात्मसिद्धये ॥ - ज्ञानार्णव, ३१।१६ २. सगद्वेषकषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्र पायांस्तदुपाय-विचय-ध्यानमिष्यते 11 ३. योगशास्त्र, १०।१० (क) स विपाक इति ज्ञेयो यः स्वकर्मफलोदयः । प्रतिक्षणसमुद्भूतश्चित्ररूपः शरीरिणाम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३२१; तथा (ख) देखें, ज्ञानार्णव, अध्याय ३२ । - योगशास्त्र, १०।१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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