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योग के साधन : ध्यान
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अस्तित्व में है. उस जगत् का ध्यान करना संस्थान-विचय धर्मध्यान है । 1 वस्तुतः यह जगत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है । पर्याय की दृष्टि से पदार्थों का उत्पाद और व्यय होता रहता है, लेकिन द्रव्य की दृष्टि से पदार्थ नित्य ही रहता है । अतः इस ध्यान से संसार की नित्य-अनित्य पर्यायों का चिन्तन होने से वैराग्य की भावना दृढ़ होती है और साधक शुभ आत्मस्वरूप का अनुभव करने की कोशिश करता है ।
किसी भी साधक का ध्यान एकाएक निरालम्ब में नहीं लग पाता, इसलिए स्थूल इंद्रियगोचर पदार्थों से सूक्ष्म, इंद्रियों के अगोचर पदार्थो का चिन्तन करना आवश्यक माना गया है । आलम्बन का ही दूसरा नाम 'ध्येय' है । ध्येय के चार भेद हैं- (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) और रूपातीत | 3
(१) पिण्डस्थ ध्यान - पिण्ड अर्थात् शरीर । इसका तात्पर्य है शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केद्रित करना । योगशास्त्र तया ज्ञानार्णव के अनुसार इसके पाँच भेद हैं- (क) पार्थिवी, (ख) आग्नेय, (ग) मारुती, (घ) वारुणी और (च) तत्त्ववती । इन पांच धारणाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर आत्म- केन्द्र पर ध्यानस्थ होना ।
१. ( क ) अनाद्यनंतस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थानविचयः स तु ॥ (ख) देखें ज्ञानार्णव, अध्याय ३३
२. (क) स्थूले वा यदि वा सूक्ष्मे साकारे वा निराकृते ।
ध्यानं ध्यायेत स्थिरं चित्तं एक प्रत्यय संगते ॥ - योगप्रदीप, १३९ (ख) अलक्ष्यं लक्ष्य सम्बन्धात् स्थूलात् सूक्ष्मं विचिन्तयेत् ।
सालंबाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥ - ज्ञानार्णव, ३०१४ ३. पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥ - योगशास्त्र, ७१८; योगसार, ९८; ज्ञानार्णव, ३४।१
४. ( क ) पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा ।
तत्त्वभूः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा ॥ - योगशास्त्र, ७१९
(ख) पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसनाख्याथ वारुणी ।
तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता
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- योगशास्त्र, १०1१४
यथाक्रमम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३४३
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