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________________ ( ग ) संलेखना, परीषह, तप, उसका महत्त्व एवं उसके भेद, विभिन्न परंपराओं में तप का विवेचन, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार एवं धारणा का यथाशक्य प्ररूपण हुआ है । जैन योग की स्पष्टता के लिए इस अध्याय का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि योग और आचार का संबंध परम्परावलम्बी है। अतः उक्त आचार-नियमों के पर्यालोचन से ही जैनयोग के पोषक तत्त्वों का परिज्ञान हो सकता है। ___ 'योग के साधन रूप-ध्यान' की व्याख्या करना पांचवें अध्याय का प्रतिपाद्य है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम वैदिक एवं बौद्ध योग में ध्यान की स्थिति, स्वरूप एवं प्रकार आदि की चर्चा है और बाद में जैन योग के अनुसार ध्यान की विस्तृत व्याख्या की गई है । व्याख्या के क्रम में प्रयत्न किया गया है कि जैनयोगानुसार ध्यान के विभिन्न अंगों प्रत्यंगों का समुचित प्रतिपादन हो, क्योंकि ध्यान योग का प्रमुख अंग है और बिना इसके समुचित विवेचन के जैनयोग संबंधी ज्ञान का सम्यक्रूप से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। छठे अध्याय का विषय आध्यात्मिक-विकास है, जिसके अन्तर्गत क्रमशः वैदिक एवं बौद्ध योग के अनुसार क्रमिक आध्यात्मिक विकास का वर्णन हुआ और इसके बाद जैन योगानुसार आध्यात्मिक विकास की विस्तृत भूमिकाएं. प्रस्तुत की गई हैं। इन्हीं सन्दर्भो में क्रमशः कर्म, आत्मा तथा कर्म का सम्बन्ध, लेश्याएं, गुणस्थानों का वर्गीकरण तथा योगविहित आठ दृष्टियों का समुचित प्रतिपादन किया गया है। इसी क्रम में आध्यात्मिक विकास के अन्यान्य सोपानों की भी चर्चा हुई है। वस्तुतः यह अध्याय योग-फलित अध्यात्म विकास की ही विवृत्ति करता है । इसलिए यह अध्याय भी योग का ही पूरक सन्दर्भ है। सातवें अध्याय का विषय 'योग का लक्ष्य-लब्धियां एवं मोक्ष' है, जिसमें वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में वर्णित विभिन्न लब्धियों का तथा मोक्ष का विचार किया गया है और योगानुसार सिद्धजीवों के प्रकारों तथा उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। अध्याय का सर्वोपरि महत्त्व इसलिए है कि इसमें योग के लक्ष्य-तत्त्व निर्वाण या मोक्ष का प्रतिपादन हुआ है। ___ इस प्रकार जैन योग पर सर्वाङ्गीण विवेचन प्रस्तुत करते हुए शोध-प्रबंध के अन्त में 'उपसंहार' लिखा गया है, जिसमें जैन योग की मौलिक विशिष्टताओं का निदर्शन हुआ है। यद्यपि जैन योग कुछ अंशों में सामान्य भारतीय योग परंपरा का ही अनुकरण करता है तथापि कुछ अंशों में अपना स्वतन्त्र वैशिष्टय भी रखता है, जो इसकी मौलिक देन है । इस शोध प्रबन्ध के सन्दर्भ में लेखक सर्वप्रथम गुरुवर डॉ. मोहनलाल मेहता ( अध्यक्ष; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ) का आभारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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