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________________ ही हठयोग, नाथयोग, शैवयोग, पातंजल-योग, अद्वैत दर्शन आदि के अनुसार भी योग के विभिन्न अंगों का विवेचन-विश्लेषण हुआ है, क्योंकि वैदिक वाङ्गमय के सर्वेक्षण के बिना योग-परम्परा का न विकास ही दिखाया जा सकता है और न भारतीय योग परम्परा का समुचित मूल्यांकन ही हो सकता है । इसी अध्याय में बौद्ध परम्परा सम्मत योग का भी दिग्दर्शन कराया गया है क्योंकि इसके अभाव में जैन योग का समुचित विश्लेषण कर पाना संभव नहीं । अतः इस अध्याय का उपयोग वस्तुतः इस शोध-प्रबंध में पीठिका स्वरूप है।। दूसरे अध्याय में 'जैन योग साहित्य' का समुचित परिचय दिया गया है, क्योंकि जैन योग-विषयक ग्रंथों के विवेचन-विश्लेषण से ही जैन योग का समुचित स्वरूप स्थिर किया जा सकता है और विकास-क्रम भी स्थिर किया जा सकता है। जैन योग विषयक प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं--ध्यानशतक, मोक्षपाहुड, समाधितंत्र, तत्त्वार्थसूत्र, इष्टोपदेश, योगबिन्दु, परमात्मप्रकाश, योगसार, योगशतक, ब्रह्मसिद्धान्तसार, योगविशंति, योगदृष्टिसमुच्चय, षोडशक, आत्मानुशासन, योगसार-प्राभृत, ज्ञानसार, ध्यानशास्त्र अथवा तत्त्वानुशासन, योगशास्त्र, ज्ञानार्णव आदि । ___'योग का स्वरूप' नामक तीसरे अध्याय में योग का महत्त्व एवं लाभ योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार, योगसंग्रह, गुरु की आवश्यकता एवं महत्त्व, आत्मा-कर्म का संबंध, योगाधिकारी के भेद, आत्मविकास में जीव की स्थिति, चित्तशुद्धि के उपाय, योग के विभिन्न प्रकार एवं अनुष्ठान, योगी के प्रकार, जप तथा उसका फल, कुण्डलिनी का महत्त्व आदि विषयों का वर्णन किया गया है, ताकि जैन योग के स्वरूप का विवेचन स्पष्टतापूर्वक हो सके । वस्तुतः उक्त विषयों के प्रतिपादन से ही जैन योग की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है। चौथे अध्याय में 'योग के साधन-आचार' के विषय में विचार किया गया है । इस अध्याय के दो परिच्छेद हैं--प्रथम परिच्छेद के अंतर्गत वैदिक एवं बौद्ध परम्परान्तर्गत आचार पर संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत की गई है और प्रमुख रूप से जैन आचार के अन्तर्गत श्रावकचार-विषयक आचार-नियमों का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में अणुव्रत, रात्रिभोजनविरमणव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, प्रतिमाएँ एवं सत्कर्मों का निरूपण क्रमशः हुआ है। दूसरे परिच्छेद में श्रमण के आचार-नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें पंचमहाव्रत एवं उनकी भावनाएं, गुप्तियाँ एवं समितियां, षडावश्यक, धर्म, अनुप्रेक्षाएं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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