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प्रास्ताविक भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न और विशाल परम्परा में विभिन्न मत. वादों या आचार-विचारों का अद्भुत समन्वय है। यद्यपि वे विभिन्न आचारविचार अपनी विशिष्टताओं के कारण अपना अलग-अलग अस्तित्त्व रखते हैं, तथापि उनमें एकसूत्रता भी पर्याप्त है। कितने ही ऐसे तत्त्व हैं, जो प्रकारान्तर से एक दूसरे के पर्याय अथवा एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय योग-परम्परा भी इस दृष्टि-बोध का अपवाद नहीं है। योग परम्परा में भी भारत की प्रमुख तीन धाराएँ अन्तर्भुक्त हैं--वैदिक, बौद्ध एवं जैन । कुछ संदर्भो में साम्य होते हुए भी तीनों का अपना वैशिष्टय है, जिन पर इनकी अपनी संस्कृति की छाप स्पष्ट है। वैदिक धारा में योग विषयक विवेचन-विश्लेषण अधिकता से हुआ है; बौद्ध धारा में भी योग की व्याख्या अनेकविध हुई है, लेकिन जैनधारा में योग के सम्यक् एवं आलोचनात्मक उपवृहण की अपेक्षा सर्वदा रही है और इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर प्रस्तुत शोध-प्रबंध का उपस्थापन हुआ है । वस्तुतः जैन योग परम्परा की सम्यक् व्याख्या, उसके बिखरे हुए अवयवों का संगठन तथा विशाल योग वाङमय का सुसम्बद्ध अध्ययन तथा तत् प्रसूत तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण अपने आप में एक महार्थ प्रयास की अपेक्षा रखता है। इस दृष्टि से लेखक का यह प्रयास श्रमसाध्य अवश्य है, लेकिन समयसाध्य भी है । लेखक ने प्रयास किया है कि जैन योग का एक स्पष्ट स्वरूप, उसकी व्याख्या, सम्बद्ध अवयवों का उद्घाटन यथाशक्य प्रस्तुत किया जाय ताकि भारतीय योग के अध्येताओं को एक सुलझी दृष्टि प्राप्त हो सके, क्योंकि बिना जैन योग का अध्ययन चिन्तन किए सम्पूर्ण भारतीय योग परम्परा का ज्ञान अधूरा ही रहेगा। इसी सिलसिले में लेखक ने यह भी ध्यान रखा है कि जैन योग के विभिन्न संदर्भो में भारतीय अन्य योग परम्पराओं के विचारों का भी यथाशक्य तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत हो।
प्रस्तुत शोध-प्रबंध सात अध्याओं में विभक्त है। 'भारतीय परम्परा में योग' नामक पहले अध्याय में सर्वप्रथम योग-परम्परा की पृष्ठभूमि, योग शब्द एवं उसका अर्थ, योग का स्रोत एवं उसके क्रमिक-विकास पर प्रकाश डालने का प्रयास है। इसमें वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, स्मृति, भागवतपुराण, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में प्रतिपादित योग-विषय की चर्चा की गई है। साथ
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