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________________ १५२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन रोकना, (२) मन के पूर्ण नियंत्रण के साथ समस्त दृश्य-जगत् को आत्मरूप समझना अथवा ब्रह्म के रूप में देखना, (३) समस्त दैनिक कर्मों के फलों का त्याग, (४) समस्त इन्द्रिय-सुखों से निवृत्ति तथा (५) अठारह मर्मस्थानों पर प्राणवायु का एक निश्चित क्रम से स्थापन करते चलना। पतंजलि ने प्रत्याहार की परिभाषा में कहा है कि इन्द्रियों का अपने विषय से संबंध छूट जाने पर चित्त के स्वरूप में विलीन हो जाना ही प्रत्याहार है, जिससे इंद्रियां पूर्णतः वश में हो जाती हैं ।' सिद्धसिद्धान्तपद्धति के अनुसार चित्त में उत्पन्न नाना विकारों से निवृत्ति होना प्रत्याहार है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार प्रत्याहार से बिम्बदर्शन होने पर ध्यान का प्रारम्भ होता है, क्योंकि दसों इंद्रियों का अन्तर्मुख होकर अपने स्वरूप मात्र में अनुवर्तन प्रत्याहार है और इस अनुवर्तन के समय इंद्रियों की विषयभावापत्ति अथवा विषयग्रहण नहीं होता। प्रत्याहार से वैराग्य, त्रिकालदर्शन, धूमादि दस निमित्तों के दर्शन की सिद्धि होती है। जैन-परम्परा के अनुसार बाह्य तथा आभ्यंतर विषयों से इन्द्रियों को हटाना प्रत्याहार है। दूसरे शब्दों में शांतयोगी इंद्रियों तथा मन को इंद्रिय-विषयों से निवृत्त करके इच्छानुसार जहाँ जहाँ धारण करता है, उसे प्रत्याहार कहते हैं। अतः सम्पूर्ण रागद्वेष से मन को हटाकर अपने को आत्मा में केन्द्रित कर लेना प्रत्याहार है। इस प्रकार तीनों परंपराओं में प्रत्याहार के द्वारा ध्यान को केन्द्रित तथा रागद्वेष आदि प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जाता है। १. स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्यस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । __ ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् । -योगदर्शन, २०५४-५५ २. सिद्धसिद्धान्तपद्धति, २०३६ ३. बौद्धधर्मदर्शन ( भूमिका ), पृ. ३८ । ४. इंद्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः । -योगशास्त्र, ६६६ ५. समाकृष्येन्द्रियार्थेम्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ॥-ज्ञानार्णव, २७।१ ६. विषयासंप्रयोगेऽन्तः स्वरूपानुकृतिः किल । प्रत्याहारो हृषीकाणामेतदायतताफलः ॥ --द्वात्रिंशिका, २४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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