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योग के साधन : आचार
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धारणा
धारणा योगसमाधि का एक प्रमुख तत्त्व है, जिसके द्वारा साधक मनोविकारों को सर्वथा त्यागकर किसी एक दिशा की ओर उन्मुख होने में सफल होता है; क्योंकि बाह्य विकर्षणों से निवृत होने के लिए आसन और प्राणायाम आवश्यक है और आंतरिक विकर्षणों से निवृत्त होने के लिए प्रत्याहार एवं धारणा जरूरी है। प्रत्याहार के सिद्ध होने पर साधक का बाह्य जगत् से संबंध छूट जाता है जिससे उसे बाह्यजगत्-जन्य कोई बाधा नहीं होती। इसलिए वह किसी बाह्य बाधा के बिना चित्त-निरोध का अभ्यास करने के योग्य हो जाता।' प्रत्याहार के अभ्यास के बाद धारणा का अभ्यास भली-भांति करना सम्भव होता है। यही कारण है कि धारणा में बाह्य विषयों से इंद्रियों को हटाकर अन्तर्मुख किया जाता है तथा मन को किसी एक जगह स्थिर एवं शान्त किया जाता है।
योग-दर्शन में धारणा की परिभाषा में कहा गया है कि चित्त को समस्त विषयों से हटाकर किसी विशेष दिशा में परमात्मा में बद्ध करना धारणा है । इस परिभाषा का समर्थन उपनिषदों ने किया है । अमृतोपनिषद् के अनुसार संकल्पपूर्ण मन को आत्मा में लीन करके परमात्मचितन में लगाना धारणा है। योगतत्त्वोपनिषद् के अनुसार पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा योगी जो कुछ देखता, सुनता, सूघता, चखता तथा स्पर्श करता है, उन सबमें आत्मविचार करना धारणा है ।" शिवसंहिता से भी इन बातों की पुष्टि होती है ।
बौद्धधर्म में धारणा को योग का चतुर्थ अंग माना गया है और कहा
१. योगमनोविज्ञान, पृ० २१४ २. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । -योग-दर्शन, ३३१ . ३. त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, १३३-३४; शाण्डिल्योपनिषद्, ७।४३-४४ ४. मनः संकल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान् ।।
धारयित्वातथात्मानं धारणा परिकीर्तिता ॥-अमृतोपनिषद्, १६ ५. योगतत्त्वोपनिषद्, ६८-७१ ६. शिवसंहिता, ५।४३-१५७
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