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योग के साधन : आचार
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जाता है और जब उक्त वायु दोनों नाड़ियों से निकल रहे होते हैं तो अशुभ फलदायक ।' बायीं तरफ की नाड़ी को इडा या चन्द्र कहते हैं और दाहिनी तरफ की नाड़ी को पिंगला या सूर्य कहते हैं तथा इन दोनों के बीच की नाड़ी सुषुप्ना है जिसे मोक्षस्थान भी कहते हैं । ___ अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि योगसाधना के लिए प्राणायाम अपेक्षित है, क्योंकि जहाँ इससे शरीर तथा मन का शुद्धीकरण होता है, वहाँ इसकी सिद्धि से जन्म एवं मृत्यु-काल अथवा शुभाशुभ का ज्ञान होता है। फिर भी विभिन्न प्राणायामों की सिद्धि में मानसिक अवरोध उत्पन्न होने से जैन-योग इसे विशेष महत्त्व नहीं देता, यद्यपि प्राणायाम के विषय में कई प्रकार के विवेचन, विश्लेषण जैन-योग ग्रंथों में उपलब्ध हैं। प्रत्याहार
वैदिक-परम्परा में योग-साधना की सिद्धि के लिए प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि प्रत्याहार के सिद्ध होने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है और चित्त की निरुद्धता से इन्द्रियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। प्रत्याहार की सिद्धि से इन्द्रियाँ पूर्णतः वश में हो जाती हैं और इसके अभ्यासी के समस्त सांसारिक रोग तथा पाप पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं । उपनिषदों में पाँच प्रकार के प्रत्याहारों का वर्णन है; यथा-(१) ज्ञानेन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से शक्तिपूर्वक
१. शशांक-रवि-मार्गेण वायवामण्डलेष्वमी। . विशन्तः शुभदाः सर्वे निष्क्रामन्तोऽन्यथा स्मृताः ॥ -योगशास्त्र, ५५७ २. इडा न पिंगलाचैव सुषुम्णा चेति नाडिकाः ।
शशि-सूर्य-शिव-स्थानं वाम-दक्षिण-मध्यगाः ॥ -वही, ५।६१ ३. प्राणायाम प्रत्याहारः। -मैत्रेयी उपनिषद्, ६।१८ ४. दर्शनोपनिषद्, ७९-१० ५. स पंचविधः विषयेषु विचरतामिन्द्रियाणां बलादाहरणं प्रत्याहारः यद्यत्
पश्यति तत्सर्वमात्मेति । नित्यविहितकर्मफलत्यागः प्रत्याहारः । सर्वविषयपराङ्मुखत्वं प्रत्याहारः। अष्टादशसु मर्मस्थानेषु क्रमाद्वारणं प्रत्याहारः ।
-शाण्डिल्योपनिषद्, १८
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