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________________ १५० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन प्राणायाम है तथा वायु को हृदय से नीचे की ओर (नाभि में ) ले जाना अधर प्राणायाम है। __ ज्ञानार्णव में एक और 'परमेश्वर' नामक प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है अर्थात् जो वायु नाभिस्कन्ध से निकलकर हृदय में आता है और वहाँ से चलकर ब्रह्मरन्ध्र अथवा तालुरन्ध्र में स्थित हो जाता है, उसे परमेश्वर प्राणायाम कहते हैं। ____ इस सन्दर्भ में वायु के अन्य चार प्रकार वर्णित हैं, जो कि नासिका विवर के क्रमशः चार मण्डलों से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे-(१) पुरन्दरयह वायु पीला, उष्ण तथा स्वच्छ है और आठ अंगुल नासिका से बाहर तक रहता है। इस वायु का सम्बन्ध पार्थिव मण्डल से है जो पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण तथा वनचिह्न से युक्त है। (२) वरुण-यह श्वेत तथा शीतल है और नीचे की ओर बारह अंगुल तक शीघ्रता से बहता है। यह वारुण-मण्डल के अन्तर्गत अक्षर 'व' के चिह्न से युक्त, अष्टमी के चन्द्रमा के आकार का होता है । (३) पवन-वह वायु काला तथा उष्णशीत होता है और छह अंगुल प्रमाण बहता रहता है । यह बायव्य-मण्डल के अन्तर्गत गोलाकार, मध्यबिन्दु के चिह्न से व्याप्त, पवनबीज 'य' अक्षर से घिरा हुआ, चञ्चल होता है। तथा (४) दहन--यह वायु लाल तथा उष्णस्पर्श और बवण्डर की तरह चार अंगुल ऊँचा बहनेवाला है। यह आग्नेय-मण्डल के अन्तर्गत त्रिकोण, स्वस्तिक-चिह्न से युक्त तथा अग्निबीज रेफ '' चिह्न से युक्त होता है। उक्त चारों प्रकार के वायु बायीं तथा दाहिनी नाड़ी से होकर शरीर में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार इनका प्रवेश शुभ फलदायक समझा १. स्थानात्स्थानान्तरोत्कर्षः प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । तालुनासाननद्वारैनिरोधः शान्त उच्यते ॥ आपीयोध्वं यदुत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् । उत्तरः स समाख्यातोऽविपरीतस्ततोऽधरः ।।-योगशास्त्र, ५।८-९ २. नाभिकन्दाद्विनिष्क्रान्तं हृत्पद्मोदरमध्यगम् । द्वादशान्ते तु विश्रान्तं तं ज्ञेयं परमेश्वरम् ॥-ज्ञानार्णव, २६।४७ ३. योगशास्त्र, ५।४८-५१ ४. वही, ५।४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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