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योग के साधन : आचार
१४९ इस प्रकार वायु को बाहर निकालना, भीतर ग्रहण करना अथवा वायु पर नियन्त्रण रखना आदि क्रियाएँ मन की चञ्चलता को रोकती हैं, क्योंकि मन तथा वायु का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए योग में पहले वायु को नियन्त्रित करने का विधान है। योगशास्त्र में वायु के पांच प्रकार वर्णित हैं-(१) प्राण, (२) अपान, (३) समान, (४) उदान तथा (५) व्यान ।' नासिका द्वारा श्वास-प्रश्वास के रूप में संचरित होनेवाला वायु प्राण है। प्राणवायु का स्थान नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि और पैर के अंगठे तक का है और यह हरे वर्ण का है। शरीर के मलमूत्रादि को बाहर फेंकने में सहयोग देनेवाले अथवा गुदा एवं लिंग से बाहर निकलनेवाले वायु को अपान कहते हैं। इसका स्थान गर्दन के पीछे की नाड़ी, पीठ, गुदा और एड़ी है तथा इसका वर्ण काला है । समानवायु भोजनरस को शरीर के विभिन्न विभागों में पहँचाता है। इसका स्थान हृदय, नाभि तथा शरीर के सभी सन्धिस्थल हैं तथा इसका वर्ण श्वेत है। उसी रस को शरीर के ऊपरी भागों में ले जानेवाले वायु को उदान कहते हैं। इसका स्थान हृदय, कण्ठ, तालु, भृकुटि का मध्य भाग तथा मस्तक है और इसका वर्ण लाल है। सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त वायु को व्यान कहते हैं। इसका स्थान सम्पूर्ण त्वचा बताया गया है और इसका वर्ण इन्द्रधनुषी है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि इन वायुओं को रेचक, पूरक एवं कुम्भक प्राणायाम द्वारा जीतना अथवा नियन्त्रित करना चाहिए।
नाभि में से वायु को खींचकर हृदय में ले जाना तथा हृदय में से वायु को नाभि में स्थिर करना प्रत्याहार प्राणायाम है अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना ही प्रत्याहार प्राणायाम है। नासिका एवं मुख द्वारा वायु को नियन्त्रित करना शान्त नामक प्राणायाम है। वाय को बाहर से शरीर के भीतर ले जाकर हृदय में स्थापित करना उत्तर ।
१. प्राणमपानसमानावुदानं व्यानमेव च । प्राणायामैर्जयेत् स्थान-वर्ण-क्रियार्थ-बीजवत् ।
-योगशास्त्र, ५।१३; ५/१४-२.
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