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________________ १४८ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन अनुसार, प्राणायाम की प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर के लिए साधा जा सकता है, रोग का निवारण किया जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता।' इन मतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राणायाम किसी न किसी प्रकार साधना के एक साधन के रूप में अपेक्षित है। वायु का नाम है प्राण तथा इस प्राण को फैलाने अथवा विस्तार करने को आयाम कहते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के श्वासों को बाहर निकालने अथवा भीतर लेने की क्रिया को ही प्राणायाम कहा गया है। अर्थात् मुख तथा नासिका से संचरित होनेवाले वायु को प्राण कहते हैं तथा इसका निरोध करना ही प्राणायाम है। इसके तीन प्रकार हैं-(१) पूरक, (२) रेचक और (३) कुम्भक ।२ चार प्रकार के प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है-(१) प्रत्याहार, (२) शान्त, (३) उत्तर एवं (४) अधर । बाहर के वायु को शरीर के भीतर लेकर उसे अपान ( गुदा ) तक भर लेना पूरक है। नाभि से अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक वायु को बाहर निकालना अर्थात् भीतर की वायु को बाहर फेंकना ही रेचक है। पूरक से उपलब्ध वायु को नाभिस्थल में रोकना तथा स्थिर करना कुम्भक है।" १. योगशास्त्र : एक परिशीलन, पृ० ४१ २. (क) त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।। पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। -ज्ञानार्णव, २६।४३ (ख) रेचकः स्याद्बहिर्वृत्तिरन्तर्वृत्तिश्चपूरकः । कुम्भकः स्तंभवृत्तिश्च प्राणायामस्त्रिघेत्थयम् ॥ -द्वात्रिंशिका, २२।१७ ३. प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चाधरस्तथा । एभिर्भेदश्चतुभिस्तु सप्तधा कीर्त्यते परैः ॥ -योगशास्त्र, ५.५ ४. समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुम्भकः ॥ यत्कोष्ठादतियत्नेम नासाब्रह्मपुरातनैः । वहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ॥ -ज्ञानार्णव में उद्धृत, २६:४९ (१-२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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