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________________ योग के साधन : ध्यान योग में ध्यान का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । मन अथवा चित्त कभी स्थिर नहीं रहता और किसी भी ध्येय वस्तु पर अधिक समय तक ध्यान ठहरता भी नहीं । अतः सर्वप्रथम चित्त की विकलता दूर कर उसे स्थिर करने का निर्देश किया गया है । इसके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम और तप आदि क्रियाओं का विधान है, ताकि साधक इनके सम्यकू पालन से मन की चंचलता, विकलता हटाकर तथा उसे अन्तर्मुख कर अपने ध्यान को आत्मा पर केंद्रित करे । ध्यान की पराकाष्ठा समाधि मानी गयी है । ध्यान की इसी महत्ता और महनीयता की दृष्टि से वैदिक, बौद्ध एवं जैन योगों में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है । वैदिक-योग में ध्यान अनेक उपनिषदों में ध्यान एवं समाधि का सूक्ष्म वर्णन प्राप्त होता है । " ब्रह्मबिंदूपनिषद् में कहा गया है कि हृदय में मन का तब तक निरोध करना चाहिए जब तक कि उसका क्षय न हो जाय । समाधि की ऐसी अवस्था में व्यक्ति परमात्मा को पाकर अपने को उसके जैसा समझने लगता है । अर्थात् ऐसी अवस्था में ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेय की त्रिपुटी नहीं रहती । जव साधक ध्यान में स्थूल का आलम्बन लेकर सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता है, तब एक ऐसी स्थिति आती है, जहाँ उसे किसी भी वस्तु के आलम्बन की अपेक्षा नहीं रह जाती । समाधि की यही अवस्था सांख्यदर्शनानुसार 'ध्यानं निर्विषयं मनः ५ मन का निर्विषय: १. दर्शनोपनिषद्, ९1१- ६; ध्यानबिन्दूपनिषद्, १४- ३७; योगकुण्डल्यूपनिषद्, ३।१५ - ३२; शाण्डिल्योपनिषद्, १।६।३-४ २. तावदेवं निरोद्धव्यं यावद्धदि- गतं क्षयम् । ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, ५ ३. अमृतनादोपनिषद्, १६ ४. शाण्डिल्योपनिषद्, ११ ५. सांख्यसूत्रम्, ६।२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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