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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन होना ही ध्यान है। योगदर्शनानुसार' आत्म-चिंतन करते-करते ईश्वर के एक ही प्रत्यय में तल्लीन हो जाना ही ध्यान है । इस ध्यान में केवल आत्मतत्त्व अनुभव में आना ही समाधि है । हठयोगसंहिता में बताया है कि प्राणायाम के द्वारा समाधि की सिद्धि अर्थात् वायु के निरोध के द्वारा मन का निरोध होता है।
ध्यान अथवा समाधि के विविध प्रकारों का वर्णन विभिन्न बैदिक ग्रंथों में मिलता है। घेरण्डसंहिता के अनुसार स्थूल, ज्योति और सूक्ष्म ये ध्यान के तीन प्रकार वर्णित हैं। पतञ्जलि के अनुसार समाधि के दो भेद हैं"-(१) सम्प्रज्ञात एवं (२) असम्प्रज्ञात ।' सम्प्रज्ञात समाधि में समस्त चित्तवृतियों का निरोध नहीं होता है और असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृतियों का निरोध हो जाता है । ध्यातव्य है कि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के लिए सम्प्रज्ञात समाधि का निरन्तर अभ्यास करना होता है । अतः असम्प्रज्ञात समाधि का कारण सम्प्रज्ञात समाधि है । सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की है:-(१) वितर्कानुगत, (२) विचारानुगत, (३) आनन्दानुगत एवं (४) अस्मितानुगत । प्रथम प्रकार में वितर्क, विचार, आनन्द एवं अस्मिता की उपस्थिति के कारण उसे सवितर्क भी कहा जाता है। चित्त को स्थिर करने के लिए इस समाधि में स्थूल वस्तु का आलम्बन लिया जाता है। द्वितीय प्रकार में वितर्करहित शेष तीनों विचार होने के कारण उसे सविचार समाधि भी कहा जाता है। इसमें भी साधक स्थूल का आलम्बन लेता है। तृतीय प्रकार की समाधि आनंद और अस्मिता की समाधि है। चतुर्थ प्रकार में केवल अस्मिता होने के कारण उसे सास्मिता समाधि कहा गया है। इस तरह चारों प्रकारों में चित्त स्थिर करने के लिए साधक को वस्तु का आलम्बन लेना ही पड़ता
१. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । -योगदर्शन, ३१ २. तदेवार्थनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । -वही, ३।२ । ३. हठयोगसंहिता, १०९ ४. घेरण्डसंहिता, ६।१-२० ५. योगदर्शन, व्यासभाष्य, १।१ ६. वही, ११४१ ७. वितर्कविचारानन्दाऽस्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः ।-योगदर्शन, १।१७
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