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योग के साधन : ध्यान है, जिसमें चित्त-संस्कार सम्पूर्णतः नष्ट नहीं होते। इस दृष्टि से इनको सबीजसमाधि भी कहते हैं। बताया गया है कि इन चारों का अभ्यास करते-करते चित्तवृत्तियों के सिर्फ संस्कार ही शेष रहते हैं और अभ्यासपूर्वक वैराग्य से उन शेष संस्कारों का भी अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसे निर्बीज समाधि कहा जाता है। ___ इन चारों सम्प्रज्ञात समाधियों को पार करके साधक अथवा योगी विवेकख्याति प्राप्त करता है। विवेकख्याति से उसके समस्त क्लेश तथा कर्म नष्ट होते हैं और चित्त में निरन्तर विवेकख्याति का प्रवाह बहने लगता है। इसी परिपक्व स्थिति को धर्ममेघ समाधि कहा है। बताया गया है कि इससे ऋतम्भरा प्रज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं और उनके द्वारा योगी असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर केवल्य प्राप्त करता हैं। बौद्ध-योग में ध्यान
वैदिक-परम्परा की ही भाँति बौद्ध-योग में भी चित्त कुशलों को स्थिर करने के लिए ध्यान की महत्ता स्वीकार की गयी है । बौद्ध दर्शनानुसार चित्त के कारण ही साधक को संसार-भ्रमण करना पड़ता है। जिसमें ध्यान के साथ प्रज्ञा है, वही निर्वाण के समीप है।५ अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति ही ध्यान का उद्देश्य है।' हीनयान के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है और अर्हत्पद की प्राप्ति करना प्रधान उद्देश्य । इस प्रकार अर्हत्पद की प्राप्ति के लिए चार आयतनों का विधान है, जो निर्वाण-प्राप्ति के साधन हैं। वे आयतन इस प्रकार हैं-(१) आकाशान
१. ता एव सबीजः समाधिः । -वही, १।४६ २. विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः। -वही, ११८ ३. तदभ्यासपूर्वकंहि चित्तं निरालम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्बीजः समाधिसम्प्रज्ञातः । -योगदर्शन, व्यासभाष्य, ११५१
स ४. योगसूत्र, ४।२९-३४ ५. यम्हि शानं च पञ्चा च स वे निब्बानसन्तिके । -धम्मपद, २५।१३ ।। ६. ते झायिनो साततिका निच्चं दळह-परक्कमा ।
फुसन्ति धीरा निन्बानं योगक्खेमं अनुत्तरं ।। -धम्मपद, २॥३ ७. अभिधर्मकोश, पृ० ५०
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