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योग के साधन : ध्यान
१६३ मन को शुद्धि के बिना व्रतों का अनुष्ठान करना वृथा कायक्लेश है। इसके लिए इन्द्रियों के विषयों का निरोध आवश्यक है और जब तक इन्द्रियों पर जय नहीं होती, तब तक कषायों पर जय नहीं होती। अतः ध्यान की शुद्धता या सिद्धि ही कर्मसमूह को नष्ट करती है और आत्मा का ध्यान शरीर-स्थित आत्मा के स्वरूप को जानने में समर्थ होता है, क्योंकि ध्यान ही जहाँ सब अतिचारों का प्रतिक्रमण है.५ वहाँ आत्मज्ञान की प्राप्ति से कर्मक्षय तथा कर्मक्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ध्यातव्य है कि ध्यान द्वारा शुभ-अशुभ दोनों की प्राप्ति संभव है। अर्थात् इससे चिंतामणि की भी प्राप्ति होती है और खलो के टुकड़े भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ध्यानसिद्धि की दृष्टि से बाह्य साधनों के निरोध के साथ स्ववृत्ति तथा साम्यभाव का होना अनिवार्य है, जबकि साधक को आत्मा के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता। अगर साधक को सांसारिक चिन्ताओं का ही ध्यान अनायास हो जाय तो भी
१. मनःशुद्ध्यैव शुद्धिः स्याद्देहिनां नात्र संशयः ।
वृथा तव्यतिरेकेण कायस्ययं कदर्थना ।। -ज्ञानार्णव, २०१३ २. अदान्तैरिन्द्रिय-ह्य श्चलैरपथगामिभिः । -योगशास्त्र, ४२५ ३. ज्ञानार्णव, २०१४ ४. एवमभ्यासयोगेन ध्यानेनानेन योगिभिः ।
शरीरांतः स्थितः स्वात्मा यथावस्थोऽवलोक्यते ॥ -योगप्रदीप, १६ ५. झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सब्बदोसाणं।
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥ -नियमसार, ९३ ६. मोक्ष:कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् ।
ध्यानंसाध्यं मतं तच्च तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥ -योगशास्त्र, ४।११३ ७. इतश्चिन्तामणिदिव्य इतः पिण्याकखण्डकम् । ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ।।
-पूज्यपादकृत इष्टोपदेश, २० ८. ततः स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवर्तितामवति ।
-तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ६२६ ९. तदा च परमैकाग्रयाबहिरर्थेषु सत्स्वपि ।
अन्यन्न किंचनाऽभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥ -तत्त्वानुशासन, १७२
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