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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
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उन व्यापारों को अन्तर्मुख करके गुरु अथवा भगवान् का स्मरण करते हुए निर्जन स्थान में सर्व प्रकार की कायचेष्टाओं से रहित होकर सुखासन बैठना चाहिए, क्योंकि इससे भी ध्यान में शुद्धता आती है । अगर पूर्वसंस्कारवश बार-बार किसी रमणी का ही ध्यान आता हो, तो उस समय उसी का ध्यान करना चाहिए और उसके शरीर की क्षणभंगुरता, सदोषता आदि का चिन्तन करना चाहिए । इससे अपने आप एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि साधक के मन में उस स्त्री के प्रति उदासीनता का भाव पैदा होगा और ध्यान शुभ-प्रवृत्तियों में केन्द्रित होने लगेगा । अतः रागजनित वस्तु का चिन्तन करते-करते भी एकान्त स्थान में बिना प्रत्याघात से ध्यान करने से क्रमशः योग पर अधिकार प्राप्त हो जाता है तथा इस प्रकार के अभ्यास से परिणाम या भाव शुद्ध एवं स्थिर रहने से परममोक्ष निकट आता है ।
ध्यान के प्रकार
जैन आगमों एवं योग संबंधी अन्य जैन वाङ्मय में ध्यान के प्रमुख चार प्रकारों का उल्लेख मिलता है - (अ) आर्त्त, (आ) रौद्र, (इ) धर्म और (ई) शुक्ल । इनमें पहले दो ध्यानों (आर्त, रौद्र) को अप्रशस्त अथवा अशुभ तथा अंतिम दो (धर्म, शुक्ल) को प्रशस्त अथवा शुभ कहा गया है, क्योंकि अप्रशस्त ध्यान दुःख देनेवाले तथा प्रशस्त ध्यान मोक्षप्राप्ति के हेतु हैं । ज्ञानार्णव के अनुसार ध्यान के तीन भेद भी देखने को मिलते हैं - ( १ ) प्रशस्त, (२) अप्रशस्त और (३) शुद्ध ।" यह प्रकारान्तर से चार भेदों का ही समर्थन है । हेमचंद्राचार्य ने ध्यान का ध्याता, ध्यान और ध्येय के रूप में वर्गीकरण किया है, तथा ध्येय के चार प्रकार बताये
१. योगशतक, ५९-६०
२. स्थानांग, ४।२४७; समवायांग, ४; भगवती सूत्र, श० २५, उद्दे० ७; आवश्यक नियुक्ति, १४५८; दशवैकालिक, अध्ययन १
३. ध्यानशतक, ५; ज्ञानार्णव, २३|१९; तत्त्वानुशासन, ३४
४. आतंरौद्रं च दुर्ध्यानं वर्जनीयमिदं सदा ।
धर्मं शुक्लं च सद्ध्यानमुपादेयं मुमुक्षुभिः ॥ ५. ज्ञानार्णव, ३।२७
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- तत्त्वानुशासन, ३४
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