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अध्यात्म-विकास के प्राणों से भी ज्यादा धर्म पर श्रद्धा रखने लगता है। वह धर्म के लिए प्राण त्याग सकता है, लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं।' अर्थात् इस दृष्टि से सम्पन्न साधक चारित्र में यम-नियमों का पालन सम्यक्रूप से करता है और बाधा या संकट उपस्थित होने पर व्रतों के पालन से मुँह नहीं मोड़ता।
इस दृष्टि में साधक अपने चारित्र्य का विकास तो करता है लेकिन पूर्ण आत्मज्ञान की प्राप्ति करने लायक नहीं। वह बाह्य पदार्थो की क्षणिकता और सांसारिक सुखशान्ति के मर्म को भी पहचान लेता है। इसलिए वह जगत्, आत्मा तथा पुण्य-अपुण्य के संबंध में जानने के लिए गुरु, मुनि आदि के पास जाने को उत्सुक रहता है। फिर भी तीव्र मिथ्यात्व के कारण वह कर्मक्षय करने में समर्थ नहीं होता और न सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में ही समर्थ होता है। इस प्रकार यह दृष्टि भी मिथ्यात्वमय ही होती है।
उपर्युक्त चार दृष्टियों को ओघदृष्टि अथवा मिथ्यात्व की कारणभूत कहा गया है, क्योंकि इन दृष्टियों में पूर्वसंचित कर्मो के कारण, धार्मिक व्रत नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यग्ज्ञान नहीं होता और न बोध ही हो पाता है। यदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो भी वह स्पष्ट नहीं हो सकती।' मिथ्यात्व की इसी सघनता के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्य पद कहा गया है, क्योंकि अज्ञानवश जीव अपना आचरण मढवत् करता है, जिसके कारण अनेक दुःख उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में इस अवेद्य-संवेद्य पद को भवाभिनन्दि भी कहा गया है और बताया गया है कि इस अवस्था में जीव अपरोपकारी, मत्सरी,
१. प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः सत्यामस्थामसंशयम् ।
प्राणांस्त्यजतिधर्मार्थ न धर्म प्राणसंकटे ।।-योगदृष्टिसमुच्चय, ५८ २. मिथ्यात्वमरिमंश्च दृशां चतुष्केऽवतिष्ठते ग्रन्थ्यविदारणेन ।
-अध्यात्मतत्वलोक, १०८ ३. नतद्वतोऽयं तत्त्वत्त्वे कदाचिदुपजायते । -योगदृष्टिसमुच्चय, ६८ ४. अवेद्यसंवेद्यपदाभिधेयो मिथ्यात्वदोषाशय उच्यते स्म । उग्रोदये तत्र विवेकहीना अधोगति मूढधियो व्रजन्ति ।
-अध्यात्मतत्वलोक, १०९
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