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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन भयभीत, मायावी, सांसारिक प्रपंचों में रत और प्रारम्भिक कार्यो में निष्फल होता है । वह संसार के भोगों में उत्कट इच्छा रखने के कारण जन्म, जरा, मरण, व्याधि, रोग, वियोग अनर्थ आदि अनेक प्रकार के कष्टों को भी भोगता है। इंद्रियों की तृप्ति एवं घोर भोगविलास में लीन रहने के कारण तृष्णा, वासना आदि भावनाएं और बढ़ती जाती हैं तथा उनके परिहार की प्रवृत्ति नहीं होती है। इस प्रकार सांसारिक पदार्थों के अनेक रूपों को समझना तथा संचित एवं संचयमाण कर्मों को नष्ट करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि इन कर्मों का छेद करने तथा सांसारिक कारणों को जानने पर ही सूक्ष्मतत्त्व की प्राप्ति होती है। इन अवस्थाओं में सद्गुरु के निकट श्रुतज्ञान सुनना, सत्संग के परिणाम एवं योग द्वारा आत्म विकास की वृद्धि करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि इससे जहां संसाराभिमुखता का विच्छेद होता है वहां अवेद्य-संवेद्य पद भी नष्ट होता है५ तथा दुःख या कषायों पर क्रमशः विजय प्राप्त करता हुआ जीव मोक्षाभिमुख बनता है।
संक्षेप में, ये चार दृष्टियां मिथ्यात्व-अवस्था की हैं और इन अवस्थाओं के जीव यम, नियमों तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के विधिवत् पालन करने से शान्त, भद्र, विनीत, मद् एवं चारित्र संपन्न बनते हैं तथा मिथ्यात्व को क्रमशः विनष्ट करके अध्यात्मसाधना में विकसित होते हैं ।
(५) स्थिरा दृष्टि : इस दृष्टि में से मुक्त जीव दर्शन प्रत्याहार से युक्त
१. क्षुद्रो लाभरतिर्दीनौ मत्सरी भयवान् शठः ।
अज्ञो भवाभिनन्दि स्यान्निष्फलारंभसंगतः। -योगदृष्टिसमुच्चय, ७६ २. वही, ७८-७९ भौगांगेषु तथैतेषां, न तदिच्छा परिक्षये ।
-वही, ८१ ४. भवाम्भोधि समुत्तारात् कर्मवज्रविभेदतः । ज्ञेय व्याप्तेश्चकात्स्न्येन सूक्ष्मत्वं नायमत्र तु ।
-वही, ६६ अवेद्यसंवेद्यपदं सत्संगागमयोगतः । तबुर्गतिप्रदं जैयं परमानन्द मिब्भता। -ताराद्वात्रिंशिका, ३२ शान्ती विनीतश्च मृदुः प्रकृत्या भद्रस्तथा योग्यचरित्रशाली । मिथ्यादृगप्युच्यत एव सूत्रे विमुक्तिपात्रं स्तुतधार्मिकत्वः ।।
-अध्यात्मतत्त्वलोक, १२०
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