________________
अध्यात्म-विकास
२११ कृत्य, अभ्रान्त, निर्दोष एवं सूक्ष्मबोधवाला होता है, क्योंकि प्रत्याहार के कारण इस दृष्टि में साधक की मानसिक स्थिति संतुलित रहती है अर्थात् वह बाह्य भोग-विलास की ओर से अथवा अपनी इंद्रियों के विषयों से मुक्त होकर मात्र चारित्र-विकास पर ही अपने को केंद्रित करता है। फलतः उसकी भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं, सूक्ष्मबोध अथवा भेद-ज्ञान हो जाता है, इंद्रियां संयमित हो जाती हैं, धर्म-क्रियाओं में आनेवाली बाधाओं का परिहार हो जाता है और परमात्म स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न करने लगता है । इस दृष्टि की उपमा रत्न की कान्ति ' से दी गयी है जो स्थिर, सौम्य, शान्त और दीप्त होती है। .
(६) कान्तादृष्टि : इस दृष्टि का स्वरूप तारों के आलोक के समान स्थिर, शान्त और चिर प्रकाशवान होता है इस दृष्टि में धारणा नामक योग के संयोग से योगी को सुस्थिर अवस्था प्राप्त होती है, परोपकार एवं सविचारों से उसका हृदय प्लावित होता है तथा उसके दोष अर्थात् चित्त की विकलता नष्ट हो जाती है। पूर्व की दृष्टियों में जहां साधक अपने चारित्रिक संयम के द्वारा केवल कर्मग्रंथियों को छेदने में प्रयत्नशील था; वहां इस दृष्टि में साधक चारित्र-विकास की अपूर्वता प्राप्त कर लेता है, चित्त की सारी मलिनताओं को दूर कर देता है और उसकी प्रत्येक क्रिया अहिंसा-वृत्ति को परिचायिका बन जाती है। फलतः इंद्रियों के चंचल विषयों के शान्त हो जाने तथा धार्मिक सदाचारों के सम्यक परिपालन से उसका स्वभाव क्षमाशील बन जाता है वह जहां भो जाता है, वहां सभी प्राणियों का प्रियपात्र बन जाता है ।
१. स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च ।
कृत्यमभ्रान्तमनघं सूक्ष्मबोधसमन्वितम्। -योगदृष्टिसमुच्चय, १५२ २. एवं विवेकिनो धीराः प्रत्याहारपरास्तथा। धर्मबाधापरित्याग-यत्नवन्तश्च तत्त्वतः ।
___ वही, १५६ ३. कान्तायामेतदन्येषां प्रीतये धारणा परा। अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदया।
-योगदृष्टिसमुच्चय, १६० ४. अस्यां तु धर्ममाहात्म्यात्समाचारविशुद्धितः । प्रियो भवति भूतानां धर्मेकानमनास्तथा ।
-वही, १६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org