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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
चारित्र ही योग है । दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र निश्चय योग भी है और व्यवहार-योग भी । आत्मा रत्नत्रयस्वरूप है और उसी को सत्यार्थं समझना निश्चयदृष्टि से योग है, क्योंकि वही मोक्ष है । रत्नत्रय के पालन से अथवा स्वरूपाचरण से जीव के परिणामों में शुद्धता आती है और ज्यों-ज्यों परिणामों में उत्तरोत्तर विकास होता जाता है त्यों-त्यों कर्मविकार घटते जाते हैं और साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । आत्मविकास के लिए चारित्र के अन्तर्गत अनेक यमनियमों का, शास्त्रीय विधि-निषेधों का अनुसरण आवश्यक है और आध्यात्मिक शिक्षा का सहारा लेना पड़ता है । कारण में कार्य के उपचार की दृष्टि से सम्यग्ज्ञानादि के कारणों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध है, उसे व्यवहारयोग कहते हैं 13 अतः धर्मशास्त्रोक्त विधि के अनुसार गुरु की विनय तथा परिचर्या आदि करना और यथाशक्ति विधिनिषेधों का पालन करना व्यवहारयोग है ।
सम्यग्दर्शन
जैन-दर्शन में दर्शन शब्द अनाकार- ज्ञान का प्रतीक माना गया है " और श्रद्धा के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । ६ सही दर्शन सही ज्ञान तक और सही ज्ञान ही सही आचरण तक ले जाने की क्षमता रखता है । ७ अतः धर्म का मूल दर्शन है । इस दृष्टि से आप्तवचनों तथा तत्त्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है । ' आप्तपुरुष वह है जो अठारह दोषों से विमुक्त
१. अभिधानचिन्तामणि, १७७
२. निच्छायओ इह जोगो सन्नाणाईण तिन्ह संबंधो ।
मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो जोगिनाद्देहिं । - योगशतक, २
३. ववहारओ य एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि ।
जो सम्बन्धो वि य कारणज्जोवयाराओ । ४. गुरुविणओ सुस्सुसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थे ।
तह चेवाणुट्ठाणं विहिप डिसेहेसु जहसती । - वही, ५ ५. साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनम् । - तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ८६ ६. उत्तराध्ययन, २८ ३५ ७. वही, २८ ३०
८. समयसार, १४
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योगशतक, ४
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