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________________ योग के साधन : आचार यहां शील का तात्पर्य धर्म को धारण करना, कर्तव्यों में प्रवृत्त होना तथा अकर्तव्यों से पराङ्मुख होना है।' समाधि का तात्पर्य चित्त में एकाग्रता अर्थात् एक ही आलम्बन में चित्त को स्थापित करना है। कुशल चित्तयुक्त विपश्य विवेकज्ञान ही प्रज्ञा है। इस प्रकार इन तीनों साधनों के सम्यक् परिपालन द्वारा ही श्रमण साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है। जैन-परम्परा में आचार जैन-परम्परा में आचार अथवा चारित्रधर्म का सर्वाधिक महत्त्व है। जैन-परम्परा में श्रावक तथा श्रमण दोनों के आचार-विचार का अति विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। श्रावक एवं श्रमण के विभिन्न आचार-विधानों का विधिवत् पालन करने का निर्देश है, क्योंकि मुक्ति-लाभ के लिए विशुद्ध विचारों के साथ-साथ विशुद्ध अर्थात् अतिचाररहित आचरण अपेक्षित है। यही कारण है कि मोक्ष के हेतुभूत समस्त धर्म-व्यापारक्रिया को योग कहा गया है और प्रकाशक ज्ञान, शोधक तप तथा गुप्तिकारी संयम इन तीनों के समायोग को जिनशासन में मोक्ष कहा गया है। इसी विचार के समानान्तर मुक्तिलाभ के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप का विधान है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र में समाविष्ट हैं। इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष प्रमुख है। अतः मोक्ष-प्राप्ति के जो कारणभूत साधन हैं, वही योग है। अर्थात् ज्ञान, श्रद्धा और १. विशुद्धिमार्ग, १।१९-२५ २. वही, ३३२-३ ३. वही, १४।२-३ ४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड १, पृ २४१ ५. णाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ। -आवश्यकनियुक्ति, १०३ ६. नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तहा। एस मणुत्ति पन्नतो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। -उत्तराध्यन, २८।२ ७. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। -तत्त्वार्थसूत्र, १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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