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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन विचार का संयोजन है, जिनमें गृहस्थ एवं मुनि धर्मों की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।
पुराणों में भी कथा एवं आख्यानों के माध्यम से तरह-तरह के आचार-विचार का प्रतिपादन हुआ है, जिनमें वानप्रस्थ के कर्तव्यों का, यतिधर्म का गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार का तथा मोक्षधर्म का प्ररूपण है। इन आचार-पद्धतियों के द्वारा सत्य की प्राप्ति, चारित्र का निर्माण तथा जीवन को संयममय बनाने का उपदेश है । वैदिक दर्शनों में भी यमनियम तथा योगशास्त्रविहित अध्यात्मविधि तथा उपायसमूह द्वारा आत्मसंस्कार का उल्लेख है और बताया गया है कि योगियों को आत्मप्रत्यक्ष होता है एवं आत्मकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
योगदर्शन में तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान को क्रियायोग" कहा गया है, क्योंकि इनसे समाधि की उत्पत्ति तथा क्लेशों का शमन होता है। योग की यह साधना सम्पन्न होने पर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है और इस साधना के लिए विभिन्न सम्यक् आचारों का सफल अनुसरण अष्टांगयोग द्वारा होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार
बौद्ध-परम्परा में भी श्रावकों एवं श्रमणों के आचार एवं विचार पर विशेष बल दिया गया है। इतना अवश्य है कि बौद्ध-परम्परा में गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों के आचार-विचार, खान-पान, रहन-सहन आदि से सम्बन्धित नियम-उपनियमों का विधान विशेष है। यही कारण है कि श्रमणों का मुख्य धर्म है शील एवं प्रज्ञा का समुचित पालन करना।
१. श्री भागवतपुराण, स्कन्ध ७, अध्याय १२ २. वही, ३. वही,
१४ ४. वही, ५. तदर्थयमनियमाभ्यामात्मसंस्कारोयोगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ।
-न्यायदर्शन, ४।२।४६ ६. वैशेषिकदर्शन, ६।२।१६ ७. तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।-योगदर्शन, २।१ ८. समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ।-वही, २२२
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