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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
ही अहिंसा है । क्योंकि कषायों की वृद्धि से ही हिंसा का भाव उत्पन्न होता है और मद्य, मांस, मधु आदि चीजों के सेवन करनेवालों के मन में कषायों की वृद्धि अधिक होती है । इसलिए इन वस्तुओं का वर्जन अहिंसा - पालन के लिए आवश्यक है ।
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सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी श्रावक को प्रमाद या अज्ञानवश दोष लगने की सम्भावना रहती है । ये दोष अतिचार कहलाते हैं । प्रथम अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं -- (१) बन्ध, (२) वध, (३) छेद अथवा छविच्छेद, (४) अतिभारारोपण, तथा ( ५ ) अन्नपाननिरोध |
१. बन्ध -- तीव्र क्रोध से प्रेरित होकर, किसी भी प्राणी को उसके इष्ट स्थान पर जाने से रोकना या बाँधकर रखना ।
२. वध - किसी भी प्राणी पर लाठी, कोड़े आदि से या अस्त्रशस्त्रादि से घातक प्रहार करना ।
३. छेद अथवा छविच्छेद- क्रोध अथवा स्वार्थवश किसी भी प्राणी के नाक-कान, चमड़ी आदि अंगों का भेदन या छेदन करना ।
४. अतिभारारोपण - मनुष्यों या पशुओं आदि पर शक्ति से अधिक भार लादना या अधिक कार्य लेना ।
५. अन्नपाननिरोध - किसी भी प्राणी के खान-पान में कटौती
करना अथवा रुकावट डालना ।
गृहस्थ को इन दोषों से यथासम्भव वचना चाहिए । किन्तु घरगृहस्थी का कार्य आ पड़ने पर या विशेष प्रयोजनवश इन दोषों का सेवन करना ही पड़े तब भी कोमल भाव से ही काम लेना चाहिए ।
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२. स्थूल मृषावादविरमण - इसे सत्याणुव्रत भी कहते हैं । सत्याणुव्रती श्रावक स्थूल असत्य का झूठे व्यवहार का त्यागी होता है । इससे जहाँ समाज में व्यक्ति की प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा होती है, वहाँ अहिंसा का पोषण भी होता है, सत्य और अहिंसा दोनों अन्यो
१. बन्धवधच्छ विच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ।
२. पं० सुखलालजी, तत्त्वार्थसूत्र, पृष्ठ १८७
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- तत्त्वार्थ सूत्र, ७ २०
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