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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
जाग्रत, (४) जाग्रत-स्वप्न, (५) स्वप्न, (६) स्वप्न-जाग्रत और (७) सुषुप्ति ।
(१) बीजजाग्रत-सृष्टि के आदि में चिति का नामरहित और निर्मल चिंतन, क्योंकि इसमें जाग्रत अवस्था का अनुभव बीजरूप से रहता है। ... (२) जाग्रत-परब्रह्म से तुरन्त उत्पन्न जीव का ज्ञान, जिसमें पूर्वकाल की कोई स्मृति नहीं होती।
(३) महाजाग्रत-पहले जन्मों में उदित और दृढ़ता को प्राप्त ज्ञान ।
(४) जाग्रत-स्वप्न-यह ज्ञान भ्रम की कोटि में आता है, क्योंकि इसका उदय कल्पना द्वारा जाग्रत दशा में होता है और इस ज्ञान के द्वारा जीव कल्पना को भी सत्य मान बैठता है।
(५) स्वप्न-महाजाग्रत अवस्था के भीतर निद्रावस्था में अनुभूत विषय के प्रति जागने पर जब इस प्रकार का ज्ञान हो कि यह विषय असत्य है और इसका अनुभव मुझे थोड़े समय के लिए ही हुआ था।
(६) स्वप्न-जाग्रत-इस अवस्था में अधिक समय तक जाग्रत अवस्था के स्थूल विषयों का और स्थूल देह का अनुभव नहीं होता और स्वप्न ही जाग्रत के समान होकर महाजाग्रत-सा प्रतीत होता है।
(७) सुषुप्ति-पूर्वोक्त अवस्थाओं से रहित, भविष्य में दुःख देनेवाली वासनाओं से युक्त जीव को अचेतन स्थिति ।।
इनमें प्रथम दो अवस्थाओं अथवा भूमिकाओं में रागद्वेषादि कषाय का अल्प अंश होने के कारण वनस्पति एवं पशु-पक्षी में होती हैं, लेकिन
तत्रारोपितमज्ञानं तस्य भूमीरिमाः शृणुः । बीजजाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च ।। जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नःस्वप्नजाग्रतसुषुप्तकम् । इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ।।
-योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, ११७।११-१२ २. वही, ३।११७, १४-२४; योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त, पृ० २३४-३६
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