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अध्यात्म
म-विकास
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भूमिका क्रमशः चित्त शुद्धि की परिधि को बढ़ाती जाती है। वे पाँच भूमिकाएँ इस प्रकार हैं- (१) क्षिप्त, (२) मूढ, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और ( ५ ) निरुद्ध । इनमें प्रथम तीन भूमिकाएँ अज्ञान अर्थात् अविकास की होने के कारण योगश्रेणी में परिगणित नहीं होतीं, क्योंकि क्षिप्रावस्था में रजोगुण के कारण साधक में चित्त की चंचलता अत्यधिक होती है । मूढ़ावस्था में तमोगुण के कारण कर्तव्याकर्त्तव्य का विचार नहीं रहता तथा क्रोध कषाय का प्राबल्य होता है और सत्वगुण के आविर्भाव से किसी-किसी समय स्थिरता को प्राप्त होनेवाला चित्त विक्षिप्त कहलाता है, जिसमें योग-विघ्नों के कारण चित्त को चंचलता अत्यधिक होती है । अन्तिम दो भूमिकाएँ ही योग श्रेणी में योग्य मानी जाती हैं, क्योंकि एकाग्र अवस्था में जहाँ अविद्यादि क्लेश तथा कर्मबंधनों को क्षीण किया जाता है और चित्त को बाह्य वृत्तियों से हटाकर एक ही ध्येय-वस्तु में एकाग्र किया जाता है, वहाँ निरुद्ध अवस्था में सम्प्रज्ञात समाधि की ओर अभिमुख हुआ जाता है, जहाँ केवल संस्कार ही शेष रह जाते हैं और वृत्तियों का पूर्णतः शमन हो जाता है ।
अतः प्रथम तीन भूमिकाओं में साधक केवल चारित्र अथवा आचारादि का पालन करने में लगा रह जाता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में चित्त की अस्थिरता सबसे बड़ी बाधक होती है । इन भूमिकाओं को अधिकसित भूमिकाएँ इसी दृष्टि से कहा गया है । परन्तु एकाग्र और निरुद्ध अवस्था में योगी अथवा साधक के संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं; चित्तवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और मन एकाग्र हो जाता है। इस प्रकार इस भूमिका को असम्प्रज्ञात समाधि भी कहा जाता है और यह कैवल्य के लिए प्रमुख भी मानी जाती है ।
योगवासिष्ठ के अनुसार आत्म-विकास को दो श्रेणियाँ हैं— अविकासावस्था एवं विकासावस्था ।
अविकासावस्था के अन्तर्गत जीव की सात अवस्थाओं का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार हैं - (१) बीजजाग्रत, (२) जाग्रत, (३) महा
१. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः ।
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— योगदर्शन, व्यासभाष्य, १1१
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