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अध्यात्म-विकास योग-सिद्धि के लिए आध्यात्मिक विकास अतीव आवश्यक है। व्यावहारिक परिभाषा में आध्यात्मिक विकास ही चारित्र-विकास है और इस आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास-क्रम में ही वैराग्य तथा समताभाव का उदय होता है, जो योग का प्रमुख अंग है।' यद्यपि आत्मा स्वभावतः शुद्ध है, परन्तु जब वह अविद्या, कर्म अथवा माया के बन्धन में होती है तब विकृत होकर नाना प्रपंचों अथवा विभिन्न अच्छेबुरे कर्मो का कारण बन जाती है। अतः आत्मा की परिशुद्धि के लिए आचारसम्बन्धी व्रत-नियमों का पालन आवश्यक होता है, ताकि समस्त कर्ममल का नाश हो सके और नये कर्मों का बंधन भी रुक सके । इन्हीं अविद्याओं, कर्मो' अथवा माया-प्रपंचों को दूर करने और आत्मा को विशुद्ध अवस्था में लाने का प्रयत्न विभिन्न योग-परम्पराओं का अभीष्ट है; क्योंकि विशुद्ध आत्मा ही मोक्ष की अधिकारी है। इस दृष्टि से योग के सन्दर्भ में आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं में हुआ है। वैदिक योग और आध्यात्मिक विकास _वैदिक परम्परा के योगविषयक विभिन्न ग्रन्थों में आत्मिक विकास की कई प्रकार की चर्चा मिलती है। इन ग्रन्थों में से योगदर्शन और योगवासिष्ठ में जीव के आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन सर्वांगीण और समुचित ढंग से हुआ है, क्योंकि इन ग्रन्थों में अध्यात्म के साथसाथ योगविषय का भी समाहार हुआ है। इस दृष्टि से योगदर्शन तथा योगवासिष्ठ में वर्णित आध्यात्मिक विकासक्रम का दिग्दर्शन कर लेना प्रासंगिक होगा।
योगदर्शनानुसार आध्यात्मिक विकास-क्रम में चित्त की पाँच भूमिकाओं का उल्लेख हुआ है, जिनमें एक के बाद दूसरी अवस्था अथवा
१. योगस्य पन्थाः परमस्तितिक्षा ततो महत्यात्म-बलस्य पुष्टिः ।।
___ -अध्यात्मतत्त्वलोक, ४।११
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