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योग के साधन : ध्यान
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कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कणिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे, आकाशगामी एवं संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए नेत्रपलकों पर स्फुरित होते हुए भाल-मण्डल में स्थिर होते हुए तालुरन्ध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चंद्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हुए, आकाश में संचरण करते हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त कुम्भक के द्वारा इस मंत्रराज का चिन्तन करना चाहिए।'
इस प्रकार इस मंत्रराज की स्थापना द्वारा मन को क्रमशः सूक्ष्मता की ओर 'अहं' मंत्र पर केंद्रित किया जाता है अर्थात् अलक्ष्य में अपने • को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति प्रकट होती है, जो अक्षय तथा इंद्रिय के अगोचर होती है ।२ इसी ज्योति का नाम आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रणव नामक ध्यान में 'ॐ' पद का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान का साधक योगी सर्वप्रथम हृदय-कमल में स्थित कणिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन-विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठी के वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव 'ॐ' कुम्भक करके ध्यान किया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि
___ अधिोरेफसंरुद्धं सकलं बिन्दुलाञ्छितम् ।
अनाहतयुतं तत्त्वं मंत्रराजं प्रचक्षते ॥ -ज्ञानार्णव, ३५१७-८ . १. योगशास्त्र, ८1१८-२२; ज्ञानार्णव, ३५।१० व १६-१९ २. ततः प्रच्याव्य लक्ष्येभ्य अलक्ष्ये निश्चलं मनः।
दधतो ऽस्य स्फुरत्यन्तयॊतिरत्यक्षमक्षयम् ॥ -ज्ञानार्णव, ३५।३० ३. (क) तथाहृत्पद्ममध्यस्थं शब्दब्रह्म ककारणम् ।
स्वर व्यंजन-संवीतं वाचकं परमेष्ठिनः॥ मूर्ध-संस्थित-शीतांशु कलामृतरस-प्लुतम् ।
कुम्भकेन महामंत्रं प्रणवं परिचिन्तयेत् ।।-योगशास्त्र, ८२९-३०, (ख) देखें, ज्ञानार्णव, ३५१३३-३५
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