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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
शब्दों की उत्पत्ति होती है । इसलिए इस ध्यान को वर्ण-मातृका का ध्यान भी कहते हैं, जो पाँच प्रकार से निष्पन्न होते हैं
अक्षर-ध्यान के द्वारा शरीर के तीन केन्द्रों अर्थात् नाभि-कमल, हृदय-कमल तथा मुख - कमल की कल्पना की जाती है और नाभि-कमल में सोलह पत्रोंवाले कमल की स्थापना करके उसमें अ, आ आदि सोलह स्वरों का ध्यान करने का विधान है; हृदयकमल में कर्णिका एवं पत्रों सहित चौबीस दलवाले कमल की कल्पना करके उस पर इन क, ख, ग, घ, आदि २५ वर्णों का ध्यान करने का विधान है तथा अष्ट पत्रों से सुशोभित मुख-कमल के ऊपर प्रदक्षिण क्रम से विचार करते हुए प्रत्येक य, र, ल, व, श, ष, स, ह, इन आठ वर्णों का ध्यान करने का विधान है । इस प्रकार निरंतर ध्यान करनेवाला योगी सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है - विगतभ्रम हो जाता है। श्रुतज्ञानी होकर मोक्ष का अधिकारी बनता है ।
मंत्र व वर्णों के ध्यान में समस्त पदों का स्वामी 'अहं' माना गया है, जो रेफ से युक्त, कला एवं विन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मंत्रराज है । इस ध्यान के विषय में बताया गया है कि साधक को एक सुवर्णमय
१. पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते ।
तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ॥
ध्यायेदनादिसिद्धान्तप्रसिद्धां वर्णमातृकाम् ।
निःशेषशब्द - विन्यास - जन्मभूमि जगन्नताम् । ज्ञानार्गव, ३५1१-२
२. द्विगुणाष्टदलाम्भोजे नाभिमण्डलवर्तिनि ।
भ्रमन्ती चिन्तयेद् ध्यानी प्रतिपत्रम् स्वरावलीम् ||
चतुर्विंशति- पत्राढ्यं हृदि कंजं सकणिकम् |
तत्र वर्णानिमान्ध्यायेत् संयमी पंचविशतिम् ॥ ततो वदनराजीवे पत्राष्टक विभूषिते ।
परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्संचरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ - वही, ३५।३-५
३. ज्ञानार्णव, ३५/६
४. अथ मन्त्रपदाधीशं
आदिमध्यान्तभेदेन
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सर्वतत्त्वैकनायकम् । स्वरव्यंजनसम्भवम् ॥
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