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योग के साधन : ध्यान
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(घ) वारुणी धारणा'-इस धारणा के अन्तर्गत साधक चिन्तन करता है कि मेघ-समूह से अमृत की वर्षा हो रही है तथा चन्द्राकार कला-बिन्दु से युक्त एक वरुण-बीज है तथा वायवी धारणा के द्वारा जिस पवन वेग से राख उड़ा दी गयो थी, वह इस अमृत-जल से साफ धुल गयी है। इस प्रकार अमृत-वर्षा का चिन्तन करना वारुणी धारणा है।
(च) तत्त्ववती अथवा तत्त्वभू धारणा-इसके अन्तर्गत सप्त धातुओं से रहित, चंद्रमा के समान उज्ज्वल तथा सर्वज्ञ के समान शुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन किया जाता है। इसके बाद सिंहासनस्थ आरूढ अष्ट कर्मो का उन्मलन करनेवाला, महिमा से मंडित निराकार आत्मा का चिन्तन किया जाता है। - इस प्रकार चतुर्विध धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने से ध्याता को मंत्र, माया, शक्ति, जादू, स्तम्भन आदि से नुकसान नहीं होता है और न दुष्ट एवं हिंस्र प्राणियों से ही उसका कोई बिगाड़ होता है। प्रथम धारणा से मन को स्थिर किया जाता है, दूसरी से शरीर-कर्म को नष्ट करके मन को रोका जाता है, ततोय से शरीर-कर्म के संबंध को भिन्न देखा जाता है और चतुर्थ से शेष कर्म का नष्ट होना देखा जाता है
और पंचम से शरीर एवं कर्म से रहित शुद्ध आत्मा का चिन्तन किया जाता है। इस प्रकार इस ध्यान में योगी क्रमशः मन को स्थिर करता हुआ शुक्लध्यान में प्रवेश करने की स्थिति में पहुँचता है और चित् स्वरूप की प्राप्ति में समर्थ होता है।
(२) पदस्थ ध्यान--इस ध्यान के द्वारा साधक अपने को बार-बार एक ही केन्द्र पर स्थिर करता है और मन को अन्य विषयों से परावृत्त करके केवल सूक्ष्म वस्तु को ध्यान का विषय बनाता है । अपनी रुचि तथा अभ्यास के अनुसार पवित्र मंत्राक्षर-पदों का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान है, क्योंकि पदस्थ ध्यान का अर्थ ही है-पदों ( अक्षरों ) पर ध्यान केन्द्रित करना। इस ध्यान का मुख्य आलम्बन शब्द हैं, क्योंकि अकारादि स्वर तथा ककारादि व्यंजन से ही
१. ज्ञानार्णव, ३४।२४-२७; योगशास्त्र, ७।२१-२२ २. वही, ३४।२८-३०; वही, ७।२३-२५ ३. योगशास्त्र, ७।२६-२८; ज्ञानार्णव, ३४।३३
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