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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
उत्थान होता रहता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का अन्तर्भाव परमात्मा में किया गया है, क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव परमात्म अर्थात् चरम अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।"
आठ दृष्टियाँ - आत्मा के क्रमिक विकास ध्यान में रखकर आचार्य हरिभद्र ने योग की किया है । उनके अनुसार दृष्टि उसको कहते हैं, के साथ बोध हो और इससे असत् प्रवृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियाँ प्राप्त हों । ये दृष्टियाँ आठ हैं - (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कान्ता, (७) प्रभा और (८) परा । इन दृष्टियों में प्रथम चार ओघदृष्टि में अन्तर्भुक्त हैं, क्योंकि इनमें वृत्ति संसाराभिमुख रहती है । अर्थात् जीव का उत्थान-पतन होता रहता है । शेष चार दृष्टियाँ योगदृष्टि में समाहित हैं, क्योंकि इनमें आत्मा की प्रवृत्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर होती है । पाँचवीं दृष्टि के बाद जीव सर्वथा उन्नतिशील बना रहता है, उसके गिरने की संभावना नहीं रहती । इस प्रकार ओघदृष्टि असत्दृष्टि और योगदृष्टि सत्दृष्टि अर्थात् मोक्षोन्मुख मानी गयी है । दूसरे शब्दों में प्रथम चार दृष्टयों को अवेद्य-संवेद्य पद ४ अथवा प्रतिपाति" तथा अंतिम चार दृष्टियों
१. (क) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा । तत्राद्य गुण स्थानेत्र बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा । ततः परन्तु परमात्मेति । - अध्यात्म - परीक्षा, १२५; (ख) आध्यात्मिक विकासक्रम, पृ० ४०
२. सच्छ्रद्धासंगतोबोधो दृष्टिरित्यभिधीयते । असत्प्रवृत्तिभ्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः ॥ |
चौदह गुणस्थानो - को
आठ दृष्टियों का वर्णन जिससे समीचीन श्रद्धा
योगदृष्टिसमुच्चय, १७
३. मित्रा-तारा- बला- दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा-परा | नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ - वही, १३
४. वही, ७०
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५. प्रतिपातयुताश्चाऽद्याश्चतस्रोनोत्तरास्तथाः ।
सापायऽपि चैतास्तत्प्रतिपातेन नेतराः ॥ - वही, १९.
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