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अध्यात्म-विकास
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रात्मा' में होता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव विविध कषायों से रंजित रहता है । चौथे से लेकर बारहव गुणस्थान का अन्तर्भाव अन्तरात्मा में होता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में आत्मा का उत्थान-पतन
में कुमुम्भ के रंग की भांति सूक्ष्म राग रह जाता है । इन्हें सूक्ष्म कषाय भी कहते हैं ।
( ११ ) उपशान्त मोह - इस गुणस्थान में सम्पूर्ण मोह का उपशम या क्षय हो जाता है, इसलिए इस गुणस्थानवर्ती साधक को उपशांतकषाय कहते हैं । लेकिन कभी मोह के उदय से यह साधक सूक्ष्म-सराग दशा में चला जाता है ।
(१२) क्षीणमोह - इस गुणस्थान नीचे गिरने का कोई भय
कषाय निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
में सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाता है, जिससे नहीं रहता । इस गुणस्थानवर्ती को क्षीण
(१३) सयोगकेवली - इस गुणस्थान में सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होती है, लेकिन इसमें काया की सूक्ष्म क्रिया विद्यमान रहती है। इसे जीवन-मुक्त अवस्था भी कहते हैं ।
(१४) अयोगकेवली – इस अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में आत्मा विकास की चरम अवस्था पर पहुंच जाती है, क्योंकि इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है । ऊर्ध्वस्वभाव वाला यह अयोगी केवली या परम शुद्ध आत्मा अशरीरी रूप में लोक के अग्रभाग पर जाकर अवस्थित हो जाता है ।
- स्थानांग, १४; कर्मग्रन्थ, भा०२, २
१. ( क ) बहिरात्मा शरीरादी जातात्मभ्रान्तिरांतरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽति निर्मलः ॥
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— समाधितंत्र,
(ख) योगसार, ६
अर्थात् आत्मा के तीन प्रकार हैं- शरीरादिक जड़ वस्तुओं में भ्रम आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा है जबकि चित्त को चितरूप से, दोषों को दोष रूप से और आत्मा को आत्मारूप से अनुभव करनेवाला साधक अन्तरात्मा है और सर्व कर्ममल से रहित जो अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है ।
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