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________________ २०२ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन पर्वत के शिखर से गिरकर मिथ्यात्वभाव की ओर मुड़ गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के) नष्ट हो जाने पर भी जिसने अभी साक्षात् रूप में मिथ्यात्व में प्रवेश नहीं किया है, वह मध्यवर्ती अवस्था सासादन गुणस्थान है। (३) सम्यक मिथ्यादृष्टि-दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व __एवं मिथ्यात्व का मिश्रित भाव । इस गुणस्थान में आत्मा न तो सत्य का दर्शन करने में समर्थ होती है, न मिथ्यात्व का ही। (४) अविरतसम्यकदृष्टि-इस गुणस्थानवर्ती पुरुष को आत्मचेतना रूप धार्मिक दृष्टि तो प्राप्त हो जाती है, क्योंकि कषायों की अनंतानुबंधी का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाता है; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय बना रहता है। ऐसा व्यक्ति न तो इंद्रिय-विषयों से विरत होता है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत होता है। केवल तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है। (५) देशविरत-इस गुणस्थान में पूर्णतः तो नहीं, आंशिक रूप से चारित्र का पालन होता है। इसी गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को श्रावक कहा जाता है । (६) प्रमत्तसंयत-इस गुणस्थान में स्थित साधक महाव्रती हो जाता है, लेकिन प्रमाद आदि दोषों का थोड़ा-बहुत अंश उसमें शेष रह जाता है, इस कारण उसे प्रमक्त-संयत कहते हैं। (७) अप्रमत्तसंयत-इस अवस्था में साधक का व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद निःशेष हो गया होता है, फिर भी वह न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय करता है; मात्र आत्मध्यान में लीन रहता है। यह साधक ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़कर गिर भी सकता है । (८) अपूर्वकरण- यह अवस्था आत्मगुण-शुद्धि अथवा लाभ की अवस्था है, क्योंकि इस अवस्था में ही साधक प्रमाद पर विजय प्राप्त चारित्रबल की विशिष्टता प्राप्त करता है। उसकी साधना में नये नये अपूर्व भाव प्रकट होते हैं। (९) अनिवृत्तिकरण ( निवृत्तिबादर )-इस अवस्था में साधक चारित्र-मोहनीय कर्म के शेष अंशों का उपशमन करता है। इस गुणस्थानवर्ती के निरंतर एक ही परिणाम होता है। (१०) सूक्ष्म सांपराय-साम्पराय का अर्थ कषाय है। इस गुणस्थानवर्ती साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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