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अध्यात्म-विकास
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मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करता है । इस प्रकार कर्मो की न्यूनता अथवा अधिकता का कारण लेश्या है । कर्मों की विविधता का उत्तरदायी भी यही है और लेश्या तथा कर्मों का संबंध बड़ा ही घनिष्ठ है । ___ इस संदर्भ में संक्षिप्त रूप में यह बता देना समुचित होगा कि महाभारत' में वर्णित प्राणिमात्र के वर्णानुसार छह भेद (कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र तथा शुक्ल ) तथा योगदर्शनानुसार त्रिविध कर्म ( कृष्ण, अशुक्ल-अकृष्ण तथा शुक्ल) प्रकारान्तर से लेश्या का ही विवरण है। यहां भी एक के बाद दूसरी अवस्था श्रेष्ठ एवं सुखकारक मानी गयी है। बौद्धधर्म में छह प्रकार की अभिजातियों-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, शुक्ल तथा परमशुक्ल का निर्देश भी इसी अर्थ में हुआ है। गुणस्थानों का वर्गीकरण
जैनधर्म के अनुसार आत्मिक विकास की सीढ़ियां या गुणस्थान चौदह हैं-(१) मिथ्यादृष्टि, (२) सास्वादन, (३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरत-विरताविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसांपराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगकेवली और (१४) अयोगकेवली ।' इन चौदह गुणस्थानों में प्रथम तीन का अन्तर्भाव बहि
१. षड़ जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्यम्ध्म् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् ।
-महाभारत, शान्तिपर्व, २८०१३३ २. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् । -योगदर्शन, ४७ ३. दीघनिकाय, ३१२५०; लेश्याकोश, पृ० २५४-५७ ४. गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है(१) मिथ्यादृष्टि-इस अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण
सम्यक्त्व गुण आवृत होने से तत्त्वरुचि प्रकट नहीं होती, यह मिथ्यात्व
तीन प्रकार का है-संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । (२) सास्वादन-सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन होने से ही इस गुणस्थान को
सास्वादन अथवा सासादन कहा जाता है । जो जीव सम्यक्त्व-रत्न रूपी
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