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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
जाने के बाद पुनः वृक्ष से नहीं जुड़ते । नये कर्मो का आगमन हो सकता है ।
कर्मबन्ध की स्थिति भी भिन्न-भिन्न होती है । कुछ कर्म तीव्र बन्ध वाले होते हैं, कुछ कर्म मध्यम बन्धवाले होते हैं और कुछ कर्म कम बन्ध वाले । कर्मों की ये स्थितियाँ राग एवं मोह की तीव्रता एवं मंदता पर निर्भर करती हैं । इस दृष्टि से जीव के भाव विविध परिणामी होते हैं । उनमें कभी राग-द्वेष की मात्रा की न्यूनता होती है तो कभी अधिकता । जीव में राग-द्वेष की इसी तरतमता को जैन योग में 'लेश्या' कहा गया है । दूसरे शब्दों में जीव जिसके द्वारा पुण्य तथा पाप में लिप्त होता है अथवा कषायों से अनुरक्त मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होती है, वह लेश्या कहलाती है ।" यह दो प्रकार की होती है - द्रव्यलेश्या तथा भावलेश्या । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक होती है और भावलेश्या आत्मगत विशेष परिणामी, जो संक्लेश और योग से अनुगत होती है । यद्यपि संक्लेश की विभिन्न स्थितियों के अनुसार भावलेश्या तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, मंद, मंदतर, मंदतम आदि अनेक भेदों के अनुसार असंख्य प्रकार की होती है, परन्तु साधारणतः भावलेश्या के छह प्रकार प्रमुख हैं - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) पीत, (५) पद्म और (६) शुक्ल । इन लेश्याओं के अलग-अलग गुण स्वभाव होते हैं । कृष्ण लेश्यावाला जीव तीव्रतम कषायी एवं मूढ़ होता है और उसके क्रोधमान-मायादि भयंकर होते हैं । ऐसे जीव के कर्म-बंधन भी तीव्रतम और सघनतम होते हैं । इस लेश्या के बादवाली अन्य लेश्याओं में क्रमशः कषायों की मंदता होती जाती है और अन्तिम शुक्ललेश्या में कषायों का सर्वथा परिहार हो जाता है । अतः ज्यों ज्यों जीव इन लेश्याओं को क्रम क्रम से कम करता हुआ आगे बढ़ता जाता है, त्यों त्यों उसकी आत्मशुद्धि की परिधि बढ़ती जाती है और शुक्ललेश्या में वह अत्यंत निर्मल होकर
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१. लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए निय अपुण्णपुण्णं च । - गोम्मटसार जीवकाण्ड, ४८८
२. दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड, पृ० २९७ ३. किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा उ, नामाइं तु जहक्कर्म ॥
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- उत्तराध्ययन,
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