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________________ २२८ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है । वह स्थिति इन्द्रियों, काल आदि से परे है और केवल मन द्वारा जानी जा सकती है । ' वैदिक योग की ही भाँति बौद्धयोग में भी निर्वाण के दो प्रकार वर्णित हैं - (१) सोपाधिशेष अर्थात् जीवन्मुक्ति तथा (२) अनुपाधिशेष अर्थात् विदेहमुक्ति । उपाधि का अर्थ यहाँ स्कन्ध है । पाँच स्कन्धों के शेष हो जाने पर सोपाधिशेष निर्वाण की प्राप्ति होती है और इन स्कन्धों का निरोध हो जाने पर अनुपाधिशेष निर्वाण प्राप्त किया जाता है । " जैन योग में मोक्ष : 1 जैन योग में मोक्ष का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । मानव आत्मविकास की क्रमशः सीढ़ियों को पार करता हुआ शुद्ध आत्म स्वरूप की स्थिति तक पहुँचता है। आत्मसाक्षात्कार अर्थात् आत्मविकास की वह परम स्थिति ही मोक्ष है । इसे पाने के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की एकरूप परिपूर्णता अपेक्षित है, जो योग का ही आनुषंगिक रूप है । क्योंकि रागादिभावों से युक्त होने पर आत्मा चतुर्गतियों में भ्रमण करता है और जब यह भ्रमण यानी मन का व्यापार रुक जाता है तब समस्त कर्मों का आवागमन रुक जाता है और आत्मा स्वभावतः निजस्वरूप में स्थित हो जाता है । 3 तेरहवें गुणस्थान अथवा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान में योग ( क्रिया ) की प्रवृत्ति रहने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति होते हुए भी मुक्ति नहीं होती । अत: जब सम्पूर्ण योग (क्रिया) निरोध रूप चारित्रपूर्ण होता है, तभी मुक्ति होती है । " इस प्रकार संसार-बन्धन एवं उसके कारणों का सर्वथा अभाव तथा आत्मविकास की पूर्णता ही मोक्ष है अर्थात् संवर एवं निर्जरा द्वारा कर्मों का सम्पूर्ण उच्छेद ही मोक्ष है" क्योंकि संवर द्वारा जहाँ आत्मा में नये १. वही, पृ० ३३२ २. विसुद्धिमग्ग, १६।७३ ३. भणिदे मणुवावारे भमंति भूयाइ तेसु रायादी । ताण विरामे विरमदि सुचिरं अम्मा सरुवम्मि | -ज्ञानसार, ४६ • ४. स्थानांग - समवायांग; पृ० १५९ ५. ( क ) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोगसंक्लेश वर्जितः । - पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका, २२ (ख) बन्धर्हत्वभावनिर्जराभ्याम् । (ग) आप्तपरीक्षा, ११६ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । - तत्वार्थसूत्र, १०।२-३, Jain Education International --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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