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तीसरा अध्याय : जन योग का स्वरूप
५४-७४ पृष्ठभूमि-५४, योग का अर्थ-५६, योग का महत्त्व एवं लाभ-५६, योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार-५७, योगसंग्रह-५९, गुरु की आवश्यकता एवं महत्त्व-६१, आत्मा व कर्म का संबंध-६२, योगाधिकारी के भेद-६२, अचरमावर्ती तथा चरमावर्ती-आत्म-विकास में जीव को स्थिति-६४, चित्त शुद्धि के उपाय-६५, वैराग्य-६६, साधन की अपेक्षा से योग के पाँच प्रकार-६७, स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन एवं अनालम्बन-६८, योग के पाँच अनुष्ठान, विष, गर, अननुष्ठान, तद्धतु अनुष्ठान तथा अमृतानुष्ठान, योग के अन्य तीन प्रकार-६९, इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्ययोग, अधिकारियों की अपेक्षा से योगी के प्रकार-७१, कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृतचक्रयोगी, अवंचक्र के प्रकार-७२, निष्पन्न
योगी, जप एवं उसका फल-७३, कुण्डलिनी-७३ । चौथा अध्याय : योग के साधन : आचार
७५-१५४ प्रथम परिच्छेद : श्रावकाचार-७१, वैदिक परम्परा सम्मत आचार-७६, बौद्ध परम्परा में आचार-७८, जैन परम्परा में आचार-७९, सम्यग्दर्शन-८०, सम्यक्त्व के पच्चीस दोष-८१, सम्यग्ज्ञान-८२, सम्यक् चारित्र-८३, चारित्र के पांच भेद-८४, चारित्र के दो भेद-८६, श्रावकाचार-८६, अणुव्रत-८८, स्थूल प्राणातिपात विरमण एवं उसके अतिचार-८९, स्थूल मृषावाद विरमण एवं उसके अतिचार-९०, - स्थूल अदत्तादान विरमण एवं उसके अतिचार-९२, स्वदारसंतोष एवं उसके अतिचार-९३, इच्छा परिमाण अथवा परिग्रह परिमाण व्रत एवं उसके अतिचार-९४, रात्रि भोजन विरमण एवं उसके अतिचार-९६, गुणव्रत एवं उसके भेद-९७, दिग्वत एवं उसके अतिचार-९९, अनर्थदण्डवत एवं उसके अतिचार-९९, भोगोपभोग परिमाणव्रत एवं उसके अतिचार-१००, शिक्षाव्रत एवं उसके भेद-१०१, सामयिक एवं उसके अतिचार-१०२, प्रोषधोपवास एवं उसके अतिचार-१०३, देशावकाशिक एवं उसके अतिचार-१०३।
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