________________
अतिथि संविभाग एवं उसके अतिचार-१०३, प्रतिमाएँ एवं उसके भेद-१०४, श्रावक के षट्कर्म-१०८; द्वितीय परिच्छेद : श्रमणाचार-११०, पंचमहाव्रत-११२, सर्वप्राणातिपात विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११२, सर्व मृषावाद विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएं-११३, सर्व अदत्तादान विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११३, सर्व मैथुन विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११४, सर्व परिग्रह विरमण एवं उसकी पाँच भावनाएँ-११४, गुप्तियाँ एवं समितियाँ-११५, गुप्ति के भेद-११६, समिति एवं उसके भेद-११७, षडावश्यक-११९, दस धर्म-१२०, बारह अनुप्रेक्षाएँ-१२३, संलेखना-१२९, परीषह-१३०, तप का महत्त्व-१३१, वैदिक परम्परा में तप-१३२, बौद्ध परम्परा में तप-१३३, जैन परम्परा में तप-१३४, तप के दोभेद-१३५, बाह्य तप-१३६, एवं उसके प्रकार, आभ्यन्तर तप एवं उसके प्रकार-१३७, आसन-१४२, प्राणायाम-१४५, प्रत्या
हार-१५१, धारणा-१५३ ।। पांचवा अध्याय : योग के साधान : ध्यान
१५५-१८९ वैदिक योग में ध्यान-१५५, बौद्ध योग में ध्यान-१५७, जैनयोग में ध्यान-१५९, ध्यान की परिभाषा एवं पर्याय-१५९, ध्यान के अंग-१६१, ध्यान की सामग्री-१६१, ध्यान के प्रकार-१६४, आर्तध्यान एवं इसके चार भेद-१६५, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, रोग चिन्ता, भोगात रौद्र ध्यान एवं इसके चार भेद-१६७, हिंसानंद, मृषानंद, चौर्यानन्द, संरक्षणानन्दधर्मध्यान तथा उसका स्वरूप-१५९, धर्मध्यान तथा उसके चार प्रकार-१७१, आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थान, ध्येय के चार भेद-१७३, (१) पिण्डस्थ एवं इसके पांच भेद-१७३, पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्ववर्ती (२) पदस्थ ध्यान-१७१, (३) रूपस्थ ध्यान-१८०, (४) रूपातीत ध्यान-१८१, शुक्ल ध्यान एवं उसके चार भेद-१८२, (अ) पृथकत्त्व वितर्क सविचार-१८४, (आ) एकत्वश्रुत अविचार-१८५, (इ) सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति-१८७, (ई) उत्सन्न क्रिया प्रतिपाति-१८८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org