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योग के साधन : आचार
१४५ है।' साथ ही आम्रकुब्जासन, क्रौंचासन, हंसासन, अश्वासन, गजासन, आदि आसनों का भी उल्लेख है, परन्तु दण्डासन का नामोल्लेख तक नहीं है । ज्ञानार्णव' तथा उपासकाध्ययन में वर्णित सुखासन का जो सामान्य रूप है वह योगशास्त्र तथा अमितगतिश्रावकाचार' में वर्णित पर्यंकासन से मिलता-जुलता है।
सुखासन गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए है। प्रथमतः पद्मासन लगाकर बैठना, तत्पश्चात् बायीं हथेली के ऊपर दायीं हथेली रखना । ऐसी अवस्था में दृष्टि सम हो, शरीर तना हुआ तथा सरल हो। खड्गासन में दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर होना चाहिए। सिर, गर्दन स्थिर हो, एड़ी, घुटने, भ्रकुटि, हाथ और आँखें समान रूप से निश्चल हों। साधक न तो खाँसे तथा न खुजली खुजाये। यहां तक कि उसे ओंठ का चलाना, शरीर का कंपाना, बोलना, मुस्कराना, दूर तक देखना, कटाक्ष करना, पलक का हिलाना वर्जित है। साधक अपनी दृष्टि नासाग्रभाग पर स्थिर रखे। यह भी उल्लिखित है कि यह ध्यान-विधि हृदय में चंचलता, तिरस्कार, मोह और दुर्भावना के न होने पर तथा तत्त्वज्ञान के होने पर ही सुलभ होती है। प्राणायाम
योगसाधना में प्राणायाम नितान्त आवश्यक है और इसके लिए आसन का सिद्ध होना भी अपेक्षित है, क्योंकि प्राण का नियन्त्रण मन के नियंत्रण के लिए तथा मन का नियन्त्रण आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है। आसन-सिद्धि के बाद मन की चंचलता दूर हो जाती है और श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति का नियंत्रण कर मन की
१. (क) पयंक-वीर-वज्राब्ज-भद्र-दण्डासनानि च ।
उत्कटिका-गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ -योगशास्त्र, ४/१२४ (ख) स्थानांग, ३९६-४९०; वृहत्कल्पसूत्र, पृ० १५७० २. योगशास्त्र, स्वोपज्ञटीका, ४/१२४ ३. ज्ञानार्णव, २६।११ ४. उपासकाध्ययन, ३९१७३३-३७ ५. अमितगतिश्रावकाचार, ८१४६
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