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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तक ध्यान अथवा तप सहजतया करना संभव है, उन-उन आसनों का विस्तृत निर्देश भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गौदोहिकासन तथा कार्योत्सर्गासन का उल्लेख किया १. (१) पर्यकासन-दोनों जंघाओं के निचले भाग को पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बायां हाथ नाभि के पास ऊपर दक्षिण-उत्तर में रखना 'पयंकासन' है। (२) वीरासन-बायां पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बायीं जांघ पर रखना वीरासन है। इसकी दूसरी विधि इस तरह है-एक पैर को पृथ्वी पर रखना और दूसरा पैर घुटने को मोड़कर उसके ऊपर रखते हुए स्थित रहना। (३) वज्रासन-वीरासन के पश्चात् वज्र की आकृति की तरह दोनों हाथों को पीछे रखकर क्रमशः बायें, दाहिने पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है वह वज्रासन है। (४) पद्मासन-एक जांघ के साथ दूसरी जांघ को मध्य भाग में मिलाकर रखना पद्मासन है। अर्थात् वज्रासन की विधि में स्थित होकर हृदय के चार अंगुल के बीच में दाढ़ी के अग्रभाग को रखना और नासिका के अग्रभाग का निरीक्षण करते हुए स्थित रहना पद्मासन है। (५) भद्रासन-दोनों पैरों के तलभाग वृषण-प्रदेश में-अण्डकोषों की जगह एकत्र करके, उनके ऊपर दोनों हाथों की अंगुलियां एक दूसरी अंगुली में डालकर रखना भद्रासन है । (६) दण्डासन-जमीन पर बैठकर इस प्रकार पैर फैलाना कि अंगुलियां, गुल्फ और जांघे जमीन के साथ लगी रहें । इसे दण्डासन कहा गया है । (७) उत्कटिक और गौदोहासन-जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं, तब उत्कटिक आसन होता है और जब एड़ियां जमीन से लगी हुई नहीं होतीं, तब वह गौदोहासन कहलाता है। (८) कायोत्सर्गासन-दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर स्थित होना अथवा बैठकर या शारीरिक कमजोरी की अवस्था में लेटकर सभी प्रकार का व्यामोह छोड़कर स्थिर होना कायोत्सर्गासन है। इसकी विशेषता यह है कि इस आसन में किसी प्रकार की कायिक या मानसिक क्रिया नहीं होती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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