________________
१४६
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन वृत्तियों को पूर्णतः केन्द्रित करने में साधक सफल होता है । श्वास-प्रश्वास को स्वाभाविक गति के अभाव को ही प्राणायाम कहते हैं और इसकी गति के व्युच्छेद के साथ-साथ चित्त की गति का भी व्युच्छेद होना यथार्थ प्राणायाम है।'
ऐतरेयोपनिषद् में प्राण ( श्वास ) एवं अपान ( प्रश्वास ) का वर्णन मिलता है। उपनिषदों में तो इस शब्द के विभिन्न संदर्भो पर प्रकाश डाला गया है।
गीता के अनुसार प्राण का नियंत्रण ही प्राणायाम है । अर्थात् प्राण. वायु को अपान में अथवा अपानवायु को प्राणवायु में ले जाना और इन दोनों की गति को अवरुद्ध करना ही प्राणायाम है। इन्हीं शब्दों का प्रकारान्तर से समर्थन करता हुआ पातंजल योग-दर्शन भी 'आसन स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति रोकने' को प्राणायाम कहता है। इसके चार भेद भी निर्देशित हैं-(१) बाह्यवृत्तिक, (२) आभ्यंतरवृत्तिक, (३) स्तम्भवृत्तिक, तथा (४) बाह्यांतर विषयाक्षेपि । बताया गया है कि इन्हीं से चित्त-संस्कारों को स्थिर बनाकर अविद्या आदि क्लेशों को नष्ट करके विवेकख्याति की प्राप्ति होती है।
शिवसंहिता में श्वासोच्छ्वास की मात्रा पर आधृत प्राणायाम के पूरक, कुम्भक और रेचक इन तीन प्रकारों का वर्णन प्राप्त होता है ।
१. योगमनोविज्ञान, पृ० १९१ २. ऐतरेयोपनिषद्, ३ ३. अमृतनादोपनिषद्, ६.१४; त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्, ९४-१२९;
योगकुण्डल्युपनिषद्, १९-३९; योगचूड़ामणि, ९५-१२१,
योगशिखोपनिषद्, ८६-१०० आदि। ४. अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ -भगवद्गीता, ४।२९ ५. तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । -योगदर्शन, २०४९ ६. वही, २१५०-५१ ७. ततः क्षीयते प्रकाशाऽऽवरणम् । --वही, २१५२ ८. शिवसंहिता, ३।२२-२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org