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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़नेवाला है ।" हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपाय रूप योग को ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रात्मक कहा है ।" यशोविजय भी हरिभद्र का ही अनुसरण करते हैं । इस प्रकार जैनदर्शन में योग का अर्थं चित्तवृत्तिनिरोध तथा मोक्षप्रापक धर्म-व्यापार है। उससे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्ष के लिए अनुकूल हो । अतः योग समस्त स्वाभाविक आत्मशक्तियों की पूर्ण विकासक क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुखी चेष्टा है। इसके द्वारा भावना, ध्यान, समता का विकास होकर कर्मग्रन्थियों का नाश होता है । वैदिक, बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में योग, समाधि और ध्यान ( तप ) बहुधा समानार्थक हैं ।
योग का स्रोत एवं विकास
'योग' शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है । यहाँ योग शब्द का अर्थं केवल 'जोड़ना ' है । ई० पू० ७००-८०० तक के निर्मित साहित्य में इसका अर्थ इन्द्रियों को प्रवृत्त करना तथा उसके बाद के साहित्य में ( लगभग ई०पू० ५०० अथवा ६०० ) इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना भी निर्देशित है । 4
ब्राह्मणधर्म के मूल में 'ब्रह्मन्' शब्द है और यज्ञ को केन्द्र में रखकर ही ब्राह्मणधर्म की परम्परा का विकास हुआ है । फिर भी यज्ञ से सम्बन्धित
१. मोक्खेण जोयणाओ जोगो । - - योगविशिका, १
२. मोक्षोपायो योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः ।
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-अभिधान चिन्तामणि,
३. मोक्षेण योजना देव योगोात्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्य हेतु व्यापार तास्य तु । - ४. सघा नो योग आ भुवत् । - ऋग्वेद १।५।३ स धीनां योगमिन्वति । - वही, १1१८1७,
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कदा योगो वाजिनो रासभस्य । - वही, १३४/९ वाजयन्निव नू रथान् योगां अग्नेरुप स्तुहि । - वही, २रा८1१ योगक्षेमं व आदायाऽहं भूयासमुत्तम मा वो भूर्धानमक्रमीम् ।
5. Philosophical Essays, p. 179
-योगलक्षण (द्वात्रिंशिका, १
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- वही, १०।१६६/५
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