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________________ भारतीय परम्परा में योग विभिन्न दर्शनों के विभिन्न मार्ग होने पर भी फलितार्थ सबका एक ही है, क्योंकि चित्तवृत्तियों की एकाग्रता के बिना न मोक्षमार्ग उपलब्ध होता है, न आत्मलीनता सधती है। अतः चञ्चल मनःप्रवृत्तियों को रोकना अथवा उनका नियन्त्रण करना सभी दर्शनों का उद्देश्य रहा है। पतंजलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। यहां निरोध का अर्थ चित्तवृत्तियों को नष्ट करना है। लेकिन इस परिभाषा पर आपत्ति उठाते हुए कहा गया है कि चित्तवृत्तियों को दुर्बल या क्षीण किया जा सकता है, परन्तु उनका पूर्ण निरोध सम्भव नहीं है । वृत्तियों के प्रवाह का नाम ही चित्त है, और चित्तवृत्ति के पूर्ण निरोध का मतलब होगा-चित्त के अस्तित्व का ही लोप तथा चित्ताश्रितभूत समस्त स्मतियों और संस्कारों का नाश । निरुद्धावस्था में कर्म तो हो हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार भी नहीं पड़ सकता, स्मृतियाँ नहीं बन पातों, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक होती हैं। योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने 'योगः समाधि' 3 कहकर योग को समाधि के रूप में ग्रहण किया है, जिसका अर्थ है समाधि द्वारा सच्चिदानन्द का साक्षात्कार । इस प्रकार वैदिक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष या प्रकारान्तर से योग के लिए दो उपादानों की अपेक्षा बतायी गयी हैमानसिक चञ्चल वृत्तियों का नियन्त्रण तथा एकाग्रता । मानसिक वृत्तियों के नियन्त्रण के बिना न एकाग्रता सम्भव है और न एकाग्रता के बिना सच्चिदानन्द का साक्षात्कार अथवा पुरुष का स्वरूप में स्थित होना। बौद्ध विचारकों ने योग का अर्थ समाधि किया है, तथा तत्त्वज्ञान के लिए योग का प्रयोजन बताया है। बौद्ध-विचारक ईश्वर और नित्य आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, तथापि दुःख से निवृत्ति और निर्वाण-लाभ उनका प्रयोजन रहा है। जैनों के अनुसार शरीर, वाणी तथा मन के कर्म का निरोध संवर है और यही योग है। यहां पतंजलि का 'योग' शब्द 'संवर' शब्द का समानार्थक ही है । हरिभद्र के मतानुसार योग मोक्ष प्राप्त करानेवाला १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।-योगदर्शन, १२ २. हिन्दी विश्वकोश, भा० ९, पृ० ४९६ ३. योगदर्शन, व्यासभाष्य, पृ० २ ४. बौद्धदर्शन, पृ० २२२ ५. आस्रवनिरोधः संवरः। तत्त्वार्थसूत्र, ९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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