SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन योग-साहित्य प्रस्तुत प्रकरण में केवल जैन योग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है, ताकि जैन योग की परम्परा एवं विकासक्रम का परिचय प्राप्त हो सके। जैन योग की मौलिकता, व्यापकता तथा विविधता पर विशेष विचार तृतीय अध्याय में किया गया है। भारतीय वाङ्मय में योग विषयक ऊर्जस्वी वित्रार अपने मूलरूप में अत्यन्त प्राचीन हैं। अथर्ववेद में योग द्वारा प्राप्त अलौकिक शक्तियों का वर्णन, कठ-तैत्तिरीयादि उपनिषदों में 'योग' की परिभाषा, महाभारत, गीता तथा बौद्ध ग्रंथों में वर्णित योग विषयक प्रचुर सामग्री को देखकर योग-दर्शन एवं साधना की अतिव्यापकता एवं प्राचीनता का अनुमान सहज ही लग जाता है। 'योग-विद्या' के प्रवर्तकों में महर्षि पतंजलि अग्रगण्य एवं प्रधान आचार्य हैं, जिन्होंने अनेक प्राचीन ग्रन्थों में बिखरे हुए योग सम्बन्धी विचारों को अपनी असाधारण प्रतिभा तथा प्रयोगों द्वारा सजा-सँवार कर 'योगदर्शन' ग्रन्थ का प्रणयन किया। यह ग्रन्थ उनकी असाधारण प्रतिभा तथा गम्भीर मेधाशक्ति का परिचायक है। जैन परम्परा में सर्वप्रथम, (ई० ८वीं शती में) हरिभद्रसूरि ने 'योग' शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में किया है। 'योग' शब्द के समानार्थक संवर, ध्यान, तप आदि शब्द आगमों में मिलते हैं। आगमों में ध्यान के भेद-प्रभेद तथा आचार-संहिता आदि का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आगमों में योग से सम्बन्धित विषयों का विशद वर्णन नियुक्ति में मिलता है। इनमें ध्यान के साथ कायोत्सर्ग तप का विशेष रूप से वर्णन है। १. स्थानांगसूत्र, ४११; भगवतीसूत्र, २५।७ समवायांगसूत्र, ४ उत्तराध्ययनसूत्र, ३०।३५ २. आवश्यकनियुक्ति, १४६२-१४८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy