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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
ध्यानशतक'
. जैन योग विषयक प्राचीन ग्रन्थ 'ध्यानशतक' है। इसके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ( ई० सातवीं शती) हैं । यह ग्रन्थ आगम-शैली में लिखा गया है। इसमें ध्यान के चारों प्रकारों का वर्णन है। प्रथम दो ध्यान आर्त और रौद्र कषाय तथा वासनाओं को बढ़ाते हैं, तथा अन्य दो ध्यान धर्म और शुक्ल मोक्ष के कारणभूत हैं। धर्मध्यान मोक्ष का सीधा कारण नहीं है। वह शुक्लध्यान का सहयोगी मात्र है। शुक्लध्यान मोक्ष का सीधा कारण है । इस ग्रंथ में बताया गया है कि जीव को कषायें, वासनाएँ एवं लेश्याएं कैसे बाँधती हैं। इसमें आसन, प्राणायाम, अनुप्रेक्षाओं का भी वर्णन है । मोक्षपाहुड
इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इनका समय अनुमानतः ई० पू० द्वितीय शताब्दी के आसपास है। मोक्षपाहुड में १०६ गाथाएँ हैं। इसमें जैन योग सम्बन्धी बहुत महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन है। इस छोटे-से ग्रन्थ में आत्मा के विभिन्न स्वरूपों का परिचय कराते हए बताया है कि मिथ्यात्व के कारण जीव की कैसी दशा होती है। आत्मध्यान में प्रवृत्त होने के लिए कषायों के आवरण को हटाने का उपदेश है, क्योंकि इसमें सभी आस्रवों का निरोध होता है और संवर-निर्जरा से संचित कर्मों का क्षय होता है । मुनि के लिए पांच महावत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि चारित्र का भी वर्णन है। बहुत से योगी विषय-वासना से मोहित होकर तपोभ्रष्ट हो जाते हैं, अतः योगी मुनि को ध्यान-साधना में सावधान रहने के लिए कहा है। इसमें श्रावक-धर्म का भी वर्णन है। यथार्थतः यह रचना योग-शतक रूप से लिखी गयी प्रतीत होती है और इसको 'योगपाहुड' भी कहा जा सकता है। पातंजल योग-दर्शन में योग के जिन यम-नियमादि आठ अंगों का निरूपण है, उनमें से प्राणायाम को
१. इस पर हरिभद्र की टीका है। २. शुक्लशुचिनिर्मलं शकलकर्ममलक्षयहेतुत्वात् ।
-योगशास्त्रप्रकाश ४, श्लोक १५, स्वोपज्ञ विवरण: ३. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा, प्रस्तावना, पृ० ७०
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