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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
पंचाचार अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य में होता है और रूढ़ार्थ में आत्मा का उद्देश्य बाह्य व्यवहार से प्राप्त हुए मन का मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ और कारुण्य भावनाओं में अभ्यथित होता है । "
(२) भावना- इसके अन्तर्गत योगी को उपर्युक्त भावनाओं का मन, वचन एवं काय से चिन्तन करना होता है, जिससे अशुभ कर्मों की निवृत्ति होती है तथा सद्भावनाओं अथवा समताभाव की वृद्धि होती है । ( विशेष जानकारी के लिए देखें पूर्व अध्याय ) |
(३) ध्यान - चित्त को बाह्य द्रव्यों से हटाकर किसी एक सूक्ष्म पदार्थ में एकाग्र करना ध्यान है । ( विशेष विवरण के लिए पांचवां अध्याय देखें) ।
(४) समता - व्यवहार में इष्ट एवं अनिष्ट अथवा शुभाशुभ परिणामों के प्रति तटस्थ वृत्ति रखना ही समता है, क्योंकि इसके द्वारा सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से प्रेम होता है तथा साधक निर्भय होता है । इससे कर्मबन्ध ढीले पड़ जाते हैं । इस प्रकार यह आध्यात्मिक विकास क्रम में साधक की चरम सीमा मानी गई है ।
(५) वृत्ति संक्षय - मन एवं शरीर से उत्पन्न चित्तवृत्तियों को जड़ मूल से नष्ट करना वृत्ति-संक्षय है ।" अर्थात् समस्त कर्मों का अवरोध
१. अध्यात्मोपनिषद्, १२
२. अभ्यासवृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः ।
निवृत्तिरशुभाभ्यासं - भूदाववृद्धिश्च तत्फलम् । - योगभेदद्वात्रिंशिका, ९; योगबिन्दु, ३५९
३. उपयोगे विजातीय, प्रत्ययाव्यवधानयाम् 1 शुभेककप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ।
४. न्यवहारकुदृष्ठयोच्च, रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्त्वधीः समतोच्यते । ५. विकल्पस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामजन्यजन्मनाम् । अपुमभोवतोरोध: प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ।
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- योगभेदद्वात्रिंशिका, ११: योगबिन्दु, ३६१
- योगभेदद्वात्रिंशिका, २२
- वही, २५ योगबिन्दु, ३६५
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