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________________ अध्यात्म-विकास २१७ करता हुआ योगी केवलज्ञान प्राप्त कर शैलेशी अवस्था में पहुंचता है, जहां वह सभी प्रकार की बाधाओं से अतीत सदानन्दमयी मोक्षावस्था 'को प्राप्त करता है।' इस प्रकार जैनयोग में योग का प्रारम्भ, पूर्वसेवा से माना गया है क्योंकि पूर्वसेवा से लेकर समता तक जो धार्मिक अनुष्ठान साधक करते हैं, वे धर्म-व्यापार होने के कारण योग के उपाय मात्र हैं। परन्तु वृत्तिसंक्षय मोक्षावस्था होने के कारण मुख्य योग कहा जाता है। फिर अपुनर्बंधक, जो मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व की ओर अभिमुख होता है, वह व्यवहार से तात्त्विक है और सकृदबन्धक ( जो एक बार मिथ्यात्व को प्राप्त करके फिर से मुक्त होता है ) द्विबंधक ( जो दो बार मिथ्यात्व में पड़कर मुक्त होता है ) अतात्त्विक है। अर्थात् अध्यात्म; भावना, अपुनर्बन्धक एवं सम्यग्दृष्टि व्यवहारनय से तात्त्विक है और देशविरत एवं सर्वविरत निश्चयनय से तात्त्विक हैं । अप्रमत्त, सर्वविरत आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विक रूप से होती है । वृत्तिसंक्षय तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में होता है।' इस तरह इन पांचों को अर्थात् अध्यात्म से लेकर ध्यानपर्यन्त के चारों स्वरूपों को सम्प्रज्ञातयोग में और वृत्तिसंक्षय की असम्प्रज्ञातयोग में दर्शाया गया है। इसलिए चौथे से बारहवें गुणस्थान तक सम्प्रज्ञात योग को और तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञात समाधि को समझना चाहिए। १. अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसंपरिग्रहः । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्दविधायिनी। -योगबिन्दु, ३६६ २. उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते । तत्पंचमगुणस्थानादुपायोऽवोगति । -योगभेदद्वात्रिंशिका, ३१ ३. योगभेदद्वात्रिंशका, १६; आध्यात्मिकविकासक्रम, पृ० ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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